रविवार, 2 दिसंबर 2012

????


पापा कहते थे... गंदे लोग सूअर की तरह होते हैं. उनसे उलझने का मतलब कीचड़ में उतरना. सूअर को कीचड़ बेहद प्रिय है. वह तो उसमें नहाकर आनंदित होगा...लेकिन तुम्हें उबकाई आएगी. कितना सच कहा था! आज के दौर में राजनीति से ज्यादा गंदगी और कहीं नहीं हो सकती. यहाँ आपको भ्रष्टाचार, दुराचार और यौनाचार में आकंठ डूबे छिछोरे लम्पट नेता तो मिल ही जायेंगे. हालांकि मैं यह भी कहना चाहूँगा कि राजनीति में सभी ऐसे नहीं हैं. अभी कुछ दिन पहले ही मेट्रो में मुझे एक सज्जन मिले. एक निहायत सुन्दर महिला के साथ थे. काफी देर तक मुझे घूरने के बाद मेरे पास आये और बोले- आप अप्पुजी हैं न? जक्कनपुर वाले. मेरे बारे में किसी का इतना कह देना ही काफी है...क्योंकि पूरी पत्रकारिता करियर में किसी को भी मेरा यह नाम और मेरे घर का पता नहीं चल पाया. पटना में भी बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं कहाँ रहता हूँ. कई तो बरसों से हमारे परिवार को जानते हैं...लेकिन उनमें भी कई लोग नहीं जानते कि जिस इंसान के आगे वो नतमस्तक होते हैं और जिन्हें वे अपना आदर्श मानते हैं...वो मेरे पापा थे. इसका सीधा कारण यह है कि मैंने कभी किसी को अपने बहुत करीब नहीं आने दिया.
खैर...मैंने कहा- कहिये. छूटते ही जनाब ने कहा- मुझे नहीं पहचाना! मैं वही हूँ जो आपके कोप का भाजक बन चुका है. मैंने कहा - मैं नहीं समझा. पूरा परिचय दीजिये. तो जनाब बोले- आप काफी दुबले हो गए हैं... लेकिन हमारे मन में तो आपकी वही पुरानी छवि बसी है. एक फाइटर वाली. मैं थोड़ा संभल गया- अतीत के पन्ने से अचानक एक किरदार उभर कर मेरे सामने खड़ा हो गया था और पहेलियाँ बुझा रहा था. उसके साथ वाली महिला उतने ही कौतुहल से मुझे निहार रही थी. मेट्रो में सफ़र कर रहे लोग भी माज़रा समझने की कोशिश कर रहे थे. मैंने झुंझला कर कहा- साफ़ साफ़ बताएँगे तो आगे बात करूँ...तब जनाब बोले- दरअसल बात 90 की है... कॉलेज का पहला दिन था... अगली सीट पर बैठने को लेकर... बस इतना कहते ही मुझे पूरा किस्सा याद आ गया. दरअसल, बात यह थी कि तब इस लड़के ने मुझे तमंचा दिखाकर मुझे पीछे कि सीट पर जाने को कहा था. लेकिन मैं वहीँ बैठा रहा. मेरे साथ जो लड़का था वह डर कर भाग गया. फिर इसके दोस्तों ने लात मारकर उस डायस को तोडना शुरू किया. मैं मना किया तो एक लड़का बाहर से एक ईंट ले आया और उसे हाथ से तोड़ने की कोशिश करने लगा... तो कोई हॉकी स्टिक सामने घुमाने लगा...कोई साईकिल की चेन. यह सब मुझे डराने के लिए था. मैं ईंट तोड़ने की कोशिश कर रहे लड़के के हाथ से ईंट ले लिया और ज़मीन पर रखकर एक ही झटके में हाथ से तोड़ दिया...और उसके छोटे टुकड़े को चुटकी से मसलते हुए ... उन सभी को यह एह्साह दिलाने की कोशिश की कि तुम सबका भी यही हश्र होगा.
अभी मैं अतीत भ्रमण ही कर रहा था कि जनाब ने कहा... भाई साहब! मुझे आज भी छाती में दर्द होता है...तब आपकी याद आती है. उसके बाद पूरी रामायण सुना दी. लोग यही सोचकर विस्मित थे कि मुझ जैसा निरीह सा दिखने वाला प्राणी भी इतना खतरनाक हो सकता है! अपनी धुलाई की कहानी वो बड़ी गरिमा के साथ सुना रहे थे.... मैंने मना किया कि क्यों मेरी इज्जत उतार रहे हो तो बोले- प्रभु... संकोच तो मुझे होना चाहिए कि मैं अपने मुंह से अपनी पिटाई की बात कह रहा हूँ...आपने तो मुझे पीटा था. मेरे साथ जो मित्र थे वह भी थोड़े उतावले हो रहे थे. इशारे में मयूर विहार की बजाय प्रगति मैदान ही उतरने को कह रहे थे. फिर न चाहते हुए भी मैंने पूछ लिया- (पहले मन में पूछा, लंगूर के हाथ में अंगूर उसी का है?) ये कौन हैं (महिला की ओर इशारा करते हुए). उन्होंने कहा- ये मेरी पत्नी हैं. इसके बाद वो पूछने लगे- कहाँ रहते हैं? कहाँ काम करते हैं? अब आप लिखते हैं कि नहीं?  लेकिन मैं चुप रहा. वैसे भी अब कोई पास आना चाहता है तो खुद ही दूर जाने का मन करता है. वो सज्जन तो नॉएडा गए...हम जब मयूर विहार उतरे तो मित्र ने पूछा- इसे कैसे जानते हैं? मैंने कहा- सुना नहीं... इसकी हरकत के लिए इसका कैसे भूत बनाया था. अब उस व्यक्ति के बारे में अपडेट जानकारी देने की बारी मित्र की थी. उसने कहा- बाबा... ये बहुत बड़ा दलाल है. अपनी राजनीति चमकाने के लिए ये नेताओं को लड़कियां सप्लाई  करता है. फिर कहा कि कभी एआईसीसी जियेगा...इधर उधर मंडराता दिख जायेगा. ये उसकी बीवी नहीं है... रोज़ किसी नयी लड़की के साथ मिल जायेगा...आजकल नॉएडा में एक शानदार डुप्लेक्स खरीदा है इसने. मेरे मुंह  से एक अलंकार निकला... जाने दे मा.....को.
दूसरी घटना...
लगभग ९५-९६ की बात है... उस समय इन्द्र कुमार गुजराल राज्यसभा में जाने कि जुगत में थे... लालू यादव इसमें उनकी मदद कर रहे थे या गुजराल साहब मदद माँगने के लिए पहुंचे थे...ऐसा कहने के पीछे वजह यह है कि मैं नेताओं से दूर ही रहता हूँ... मेरे कुछ परिचित लोग राजनीति के शिखर पर पहुंचे...लेकिन मैंने हमेशा उनसे दूर ही रहा. हाँ तो गुजराल साहब काफी समय तक हमारे मोहल्ले में रहे...हर रोज़ सुबह वो सुशील नाई के सैलून के बाहर टेबल पर बैठे रहते थे. मैं सुबह की  सैर के बाद लौटते समय कुछ देर उन्ही के साथ बैठ जाता था. कई दिन ऐसे ही बीते...एक दिन मैंने पूछ लिया- आप तो बड़े उद्योगपति हैं...फिर यहाँ... फिर उनके बारे में पूछा...लेकिन उन्होंने मुझे एक बच्चे से ज्यादा कुछ नहीं समझा. मैं था भी बच्चा. वो कहाँ बुज़ुर्ग...अलबत्ता वो मुझसे ही पूछते कि कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? कहाँ पढ़ते हो? एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा भी जताई कि वो मेरे पिताजी से मिलना चाहते हैं....लेकिन मैं ही नहीं ले गया. मैंने थोड़े समय में और जितनी बुद्धि थी उसके हिसाब से जितना भी मैंने उन्हें जाना...मेरे मन में उनके लिए आज भी वही सम्मान है. कई बार तो जब वो बोलते तो मुझे सुनाई ही नहीं देता था... उनका लहजा बड़ा विनम्र था... पैसे का कोई घमंड नहीं... कुछ समय बाद उनके सितारे बुलंद हुए और शायद अप्रैल १९९७ में प्रधानमन्त्री बन गए. मोहल्ले का हर शख्स अफ़सोस करता था...काश मैंने गुजराल साहब से नजदीकी बनायी होती! एक दिन भैया और माँ ने हँसते हुए कहा...तेरी पहुँच तो अब तो सीधे प्रधानमन्त्री तक हो गयी है! लेकिन मैंने हँस कर बात टाल दी....

by Nagarjuna Singh on Friday, April 29, 2011 at 12:05am

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें