गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

मेला देख रोए कबीरा

लंबे समय से मैं 2010 में दिल्ली में लगने वाले 19वें विश्व पुस्तक मेले की बाट जोह रहा था। मुझे बड़ी उम्मीद थी कि इस बार जरूर अपने पसंदीदा देसी और विदेशी लेखकों की किताबें खरीद सकूंगा। रोजमर्रा के काम से देर रात को छुटकारा पाने के बाद सुबह-सुबह बिस्तर का मोह त्यागना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है। चार बजे सुबह सोने वाला प्राणी ही मेरी इस मर्मस्पर्शी पीड़ा को समझ सकता है। खासकर जाड़े की अलसाई सुबह रजाई का मोह त्यागना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। सुबह उठने के लिए जिस वक्त का मैंने अलार्म लगाया उस समय निंदिया रानी हम जैसों को आगोश में लेकर स्वप्न लोक का भ्रमण कराती घूमती है। रोज की तरह हम करीब दो बजे कमरे पर पहुंचे। आगे नाथ न पीछे पगहा... ऐसा तो है नहीं कि घर जाते ही गरमागरम खाना दस्तर$खान पर लगा दिया जाएगा। यहां तो हम रोज ही कुआं खोदते हैं और रोज ही पानी पीते हैं। बहरहाल खाना बनाने के बाद खाते-खाते भोर के 3:30 बज चुके थे। सोने से पहले रोज की तरह मेडिटेशन भी करना था। अत: मेडिटेशन के बाद जब हम शयन सुख लेने रजाई में घुसे तब तक 4:15 बज चुके थे। हमने यह सोचकर 7 बजे का अलार्म लगाया कि कान-पूंछ हिलाते-हिलाते 7:30 तो बज ही जाएंगे। लेकिन हम दो कदम आगे निकले, अब उठता हूं... तब उठता हूं करते-करते 8:15 बज गए। मैंने तत्काल रजाई फेंकी और दिल्ली प्रस्थान की तैयारियों में जुट गया। 15 मिनट में तैयार तो हो गया, लेकिन एक समस्या अब भी मुंह बाए खड़ी थी। तितली रानी ने भी मेले से किताब लाने का फरमान सुनाया था, परन्तु लिस्ट उन्हीं के पास थी। मैंने मैसेज किया पर कोई फायदा नहीं। मोहतरमा घोड़े और पता नहीं क्या-क्या बेचकर सो रही थीं। टाइम पास करते-करते करीब नौ बजे मैंने फोन किया तब जाकर उठीं। अलसाए अंदाज में किताबों की फेरहिस्त मुझे थमाई। उन्हें देखकर मेरे मन में भी अपने प्यारे बिस्तर के लिए दया भाव जाग गई। इच्छा तो हुई कि मैं वहीं पर पसर जाऊं, पर दिल्ली जाना भी जरूरी था।
इसी बीच हमें एक और मित्र कॉलोनी में भटकते मिल गए। उन्हें भी दिल्ली जाना था। सोचा चलो एक से भले दो। मित्र अपने घर यह कहकर प्रविष्ट हुए कि दूसरी तरफ से निकलता हूं आप उस तरफ आइए। 15 मिनट इंतजार के बाद भी जब वे घर से नहीं निकले तो मैंने सोचा दाढ़ी ही बनवा लूं। समय भी कट जाएगा और मित्र चित्रग्रीव भी आ जाएंगे। पर धत... अभी नाई ने साबुन ही लगाया था कि जनाब सपत्नीक निकल आए। अब उठना संभव नहीं था, नाई उस्तरा भांज चुका था। इस हाल में जाने का मतलब वे मदारी और मैं बंदर से कम नहीं दिखता। वे बाद में निकले, लेकिन मुझसे पहले बस अड्डे पहुंच गए। मैं पहले निकला और लेकिन बाद में बस में चढ़ा। रास्ते भर हम फोन पर बतियाते रहे और एक-दूसरे के बस को निहारते रहे। लेकिन सब व्यर्थ.. दिल्ली अंतरराज्यीय बस अड्डे पर पहुंचने के बाद ही हम एक-दूसरे का दर्शन कर सके। बस अड्डे से वे अपने रास्ते और मैं प्रगति मैदान के रास्ते।
मैंने सोचा क्यों खामख्वाह ऑटो में 70-80 रुपए फूंकूं? जब बस दस रुपए में ही गंतव्य तक पहुंचा देगी तो इतना पैसा क्यों व्यर्थ खर्च करूं? इतने में तो एक किताब आसानी से आ जाएगी। मैंने रिंग रोड सेवा ली, लेकिन दिल्ली में विकास कार्यों के चलते प्रगति मैदान ही पहचान नहीं सका। सोचा अब प्रगति मैदान आएगा, अब आएगा। लेकिन उसे तो आना ही नहीं था। मेरे होश तब उड़ गए जब देखा कि बस लाजपत नगर पहुंच गई है। मैं तत्काल रेड लाइट पर ही कूद पड़ा। मेरा शायद दिन ही खराब था, यहां से मुझे कोई ऑटो नहीं मिला। उस मनहूस घड़ी को कोसते हुए मैं पैदल ही टेंशन में साउथ एक्सटेंशन पहुंचा। ग्लास भर जूस पीया और अंडरग्राउंड रास्ते से सड़क के दूसरी ओर पहुंचा। सौभाग्य से एक ऑटो वाला प्रगति मैदान जाने को तैयार हो गया।
जब हम प्रगति मैदान पहुंचे तो दो बज चुके थे। हमने सोचा टिकट लेकर जल्दी प्रविष्ट हुआ जाए, लेकिन हत भाग्य! टिकट काउंटर तो खुला था, लेकिन उसमें टिकट देने वाले महाजन ही नहीं थे। काउंटर के ऊपर लिखा था 6 से 12 साल के बच्चों के लिए टिकट 10 रुपए, वयस्क- 20 रुपए। आगे जाकर एक कमरे में झांका तो एक सज्जन मिले। टिकट कहां मिलेगी? - उनसे पूछा। जवाब मिला- 10 नंबर गेट पर चले जाइए। मुझे लगा जैसे मेरे साथ लुका-छिपी खेला जा रहा है। अब दस नंबर गेट किधर ढूंढूं? ऐसा नहीं है कि सिर्फ मैं ही अंदर जाने के लिए छटपटा रहा था। मेरे जैसे और भी कई पुस्तक प्रेमी वैसे ही भटक रहे थे, जैसे को अतृप्त आत्मा! इस आंख-मिचौली में करीब 30 मिनट बीत गए। अब 2:30 बज रहे थे। पत्रकार होने के बावजूद मैं आई कार्ड लेकर नहीं घूमता। सोचता हूं कि जब घुड़की ही काम कर जाती है तो इसे लेकर घूमने से क्या फायदा? मैंने इस उम्मीद से अपने कुछ प्रकाशक मित्रों को फोन घुमाया कि वे गेट पर आएंगे और मुझे बाइज्जत अंदर ले जाएंगे। लेकिन यह भूल गया कि जिस शहर के लोगों की आंख तक का पानी ही सूख चुका है उस शहर के लोगों से ऐसी उम्मीद पता नहीं कैसे पाल बैठा! खैर हम भी जि़द्दी टाइप के ही हैं। बिना 'हनुमान गियरÓ लगाए काम नहीं चलेेगा, यह सोचकर फिर से गेट पर पहुंचे। अंदर जाने लगा तो सिक्योरिटी गार्ड ने टिकट मांगा। मैंने कहा- नहीं है।
गार्ड - पास दिखाइए।
- वह भी नहीं है- मैंने कहा।
गार्ड- फिर आप अंदर नहीं जा सकते।
- अखबार वाले को रोकता है! कहां है तेरा अधिकारी? उसे बुला।
गार्ड- साहब! आप पहले बताते। ऐसा कीजिए... चार नंबर गेट से चले जाइए। आप लोगों की एंट्री अरेंजमेंट उधर से ही है।
जब चार नंबर गेट पर पहुंचा तो दिल्ली पुलिस की पल्टन देखकर हवा निकल गई। मन ही मन सोचा, कहीं रोक दिया तो इज्जत का फलूदा निकल जाएगा। लेकिन मुझे तो हर हाल में पुस्तक मेले में जाना था। मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी और शान से अंदर दाखिल हो गया। पुलिस वाले भी सोचते रहे, कोई बड़ा 'तोपÓ होगा तभी तो धड़धड़ा के घुस गया। एक थ्री स्टार लगाए पुलिस वाला सामने टकराया। इशारों में पूछा तो मैंने भी इशारे में जवाब दिया। मुझे घूरा तो मैंने उसे ऊपर से नीचे तक नाप लिया। शायद उसके दिमाग की बत्ती जल गई तब तक। यही सोचा होगा, मुझसे पंगा लेना ठीक नहीं है। ढीठ प्राणी दिखता है। फिर वह साथ चलने लगा और बोला- कहां जाना है?
 - पुस्तक मेले में... आपको चलना है तो चलिए (थोड़ी अकड़ के साथ)
पुलिसवाला- मेरा मतलब है... आपके पास ...
- पत्रकार हूं (बीच में ही टोकते हुए)
पुलिसवाला- सर आप गलत दिशा में जा रहे हैं। यह तो प्रोटोकॉल एरिया है। मीडिया लाउंज उस तरफ है। (फिर उसने यह कहते हुए एक अर्दली को साथ लगा दिया कि साहब को मीडिया लाउंज छोड़ दो)। हुक्म की तामील करते हुए उसने मुझे मीडिया लाउंज के गेट पर छोड़ तो दिया, लेकिन मुझे देखता रहा कि मैं अंदर जाता हूं कि नहीं। मैंने उसका धन्यवाद किया और अंदर चला गया। वहां कुछ पत्रकार बंधु पेट पूजा में मशगूल थे। एक-दो लोग जान-पहचान के भी थे। लेकिन उनका ध्यान खाने पर ही था।
बहरहाल हम जल्दी बाहर निकले और वहां से हॉल नंबर एक में पहुंचे। यहां एक प्रकाशक मित्र से मिला और कुछ स्टॉल घूमने के बाद सीधे हॉल नंबर 12 ए पहुंचा। घूम-घूम कर किताबें ढूंढऩे लगा। सोचा था एकाध साहित्यकार से मिलकर वर्तमान साहित्य की दशा और दिशा पर चर्चा करूंगा। इसी बहाने कुछ लिखने को मसाला भी मिल जाएगा। कई स्टॉल घूमने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि साहित्यकारों से बातचीत के अलावा पुस्तक प्रेमियों से भी पूछ लिया जाए कि उन्हें पसंदीदा लेखकों की पुस्तकें मिलीं या वे भी निराश लौट रहे हैं। कहने को तो यह विश्व पुस्तक मेला था, लेकिन कोई खास उत्साह और उमंग नहीं दिख रहा था। कई बड़े साहित्यकारों की तो पूरी रेंज भी उपलब्ध नहीं थी। एक प्रकाशन हाउस के स्टॉल पर पहुंचा तो एक मित्र टकरा गए। इसी प्रकाशन हाउस में कार्यरत थे। यहां एक नामचीन साहित्यकार की पुस्तक का लोकार्पण चल रहा था। कुर्सी पर जमे कुछ पत्रकार बंधु व अन्य लोग वहां खड़े लोगों को हेय दृष्टि से ऐसे देख रहे थे, जैसे सामने वाले की औकात कौड़ी भर की भी न हो। इतने में मित्र ने एक व्यक्ति को उठाया और उनकी जगह मुझे बैठा दिया। एक मिनट में ही सीन बदल गया। करीब 20 मिनट तक लोकार्पण और 'दो शब्द कहिएÓ झेलता रहा। इस दौरान मेरी तबीयत बिगडऩे लगी, लगा जैसे दम घुट जाएगा। अकबकाई हालत में इधर-उधर देखने लगा कि किसी से पानी का बोतल मांगूं। सुबह से कुछ खाना तो दूर पानी भी नहीं पिया था। अन्न-पानी के नाम पर साउथ एक्सटेंशन में सिर्फ एक ग्लास जूस ही उदर में प्रविष्ट कर पाया था। पास बैठी एक महिला ने शायद मेरी बेचैनी भांप ली। उन्होंने पानी का बोतल मेरी ओर बढ़ाया, एक घूंट पानी ही था। उन्होंने कहा- इसी से काम चलाइए। मैं पानी मंगवाती हूं। पानी पीकर मैंने उनका धन्यवाद किया और बाहर निकल गया। वह तो तितली रानी की पुस्तकें लेनी थी इसलिए व्यर्थ प्रलाप झेलता रहा। नहीं तो मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में कभी किसी का इंतजार नहीं किया। समय से काम कीजिए और रास्ता नापिए। अपने जीवन का यही फंडा है। खैर बाहर निकल कर हमने एक बार फिर उस प्रकाशन स्टॉल और तितली रानी द्वारा दी गई किताबों की सूची पर निगाह डाली। फिर यह सोचकर दूसरे प्रकाशन के स्टॉल के लिए चल पड़ा कि वापसी में ये किताबें ले लूंगा। किताबें खरीदते-खरीदते मैं माक्र्स विचार धारा को समर्पित साथियों के स्टॉल पर पहुंचा। मनपसंद रूसी साहित्यकारों की किताबें बटोरता गया। यहां किताबें अधिक हो गईं और पैसे कम पड़ गए। फिर भी सर्वाधिक आठ-दस किताबें मैंने यहीं से खरीदी। जेब में और पैसे होते तो कुछ और किताबें खरीदता, ऑर्डर दे देता। फिर भी इसी बात से दिल को दिलासा दिया कि जब पैसे ही नहीं हैं तो सोचने से क्या फायदा। अब तक मेरी हालत और बिगड़ चुकी थी। पीठ, कमर और पैर में बेतहाशा दर्द हो रहा था। पैर सूज चुके थे, जिसके कारण जूता कसता जा रहा था। मन में फिर एक उम्मीद जगी। अमित ने खाने का न्योता दिया था। फिर एक दुर्भाग्य, मैंने दूसरा मोबाइल इसलिए घर छोड़ दिया कि खामख्वाह क्यों इसे ले जाऊं? उसी में अमित और कुछ अन्य दोस्तों के नंबर थे। सत्यम से मैंने संदीप का नंबर लिया। बात की तो पता चला, जनाब की तबीयत नासाज थी। मैंने सोचा- क्यों इन्हें तकलीफ दूं। फिर रविकांत ओझा का नंबर याद आया। फोन किया तो साहब घर पर ही थे, लेकिन बाजार जाने की तैयारी कर रहे थे। मैंने कह दिया कि शाम को आपके यहां आ रहा हूं। बंधुवर ने बताया कि वे कमरा शिफ्ट कर चुके हैं। हमने तितली रानी से जो बैग लिया था उसमें किताबें ठूंसी और बाकी कैरी बैग में डालकर रविकांत के घर के लिए चल पड़े।
अब हमें क्या पता था कि मेले से से बाहर निकलना इतना दुष्कर कार्य है। यह स्थान महरौली की भूल भुलैया से कम नहीं था। आधा घंटे तक चलता रहा, लेकिन बाहर का रास्ता नहीं मिला। किसी से पूछता तो वह वही रास्ता बताता जिस रास्ते से मैं वहां तक आया था। मेरी हालत बिगड़ती जा रही थी, लेकिन यह सोचकर मन को दिलासा दे रहा था कि बाहर निकलने के लिए मैं अकेले नहीं भटक रहा हूं। सभी की हालत ऐसी ही है। कोई बाहर निकलने का रास्ता पूछने में संकोच कर रहा है तो कोई यह सोचकर खड़ा है कि दूसरा रास्ता पूछ ही रहा है, उसी के पीछे बाहर निकल जाऊंगा। कुछ की तो हालत ऐसी थी कि मत पूछिए। एक ही रास्ते पर पेंडुलम की तरह झूल रहे थे। त्रिशंकु बने हुए थे। न इधर के , न उधर के। मैं सोच रहा था कि कोई स्टाफ मिल जाए तो उसी से पूछ लूं।
एक सज्जन को दो नंबर गेट जाना था। एक व्यक्ति ने रास्ता बताया। कुछ दूर तक पत्नी के साथ वे आगे गए, लेकिन दूसरे व्यक्ति ने पीछे का रास्ता बता दिया तो उल्टे पांव लौट पड़े। लोग पुस्तक मेला घूमने में उतना नहीं थके होंगे, जितना बाहर निकलने की कसरत में। मैं करीब 5:15 बजे से पिंजरे में कैद पंछी की तरह आजाद गगन में निकल भागने को फडफ़ड़ा रहा था। लेकिन छह बजे तक निकल नहीं पाया था। वैसे भी पता नहीं क्यों शाम होते ही मेरे दिमाग की बत्ती गुल हो जाती है (उसी तरह जैसे एक फिल्म में कादर खान को शाम होते ही दिखाई देना बंद हो जाता था)। हालांकि मुझे दिखाई तो देता है (लेकिन दूर का धुंधला) पर जब कुछ सोचता हूं तो परिणाम उल्टा ही निकलता है। करीब 6:15 बजे प्रगति मैदान के बाहर निकल कर मैंने दो टिक्कियां खाईं। वह भी इस डर से कि कहीं माइग्रेन न उपट जाए। हुआ भी यही। बाहर घंटा भर से अधिक देर तक इंतजार करता रहा। न तो कोई ऑटो बस अड्डे के लिए मिली और न कोई बस आई। आखिरकार एक बस मिली और मैं उसमें चढ़ गया। जेब से पैसे निकाल लिए ताकि कंडक्टर को तकादा करने की नौबत नहीं आए। फिर एक सीट खाली हुई तो उस पर बैठ गया। राजघाट रोड पर पहुंंचा ही था कि बस अड्डे से काफी पहले एक रेड लाइट पर उतर गया। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि 100 मीटर दूर बस अड्डा है और हरियाणा, पंजाब और हिमाचल जाने वाली बसें बाहर निकल रही हैं। रेड लाइट पर पहुंचा तो गलती का अहसास हुआ। बस अड्डा तो काफी आगे है। भागकर एक बस में चढ़ा तो कंडक्टर ने पांच रुपए का टिकट फाड़कर थमा दिया। कमबख्त ने लेकिन उतारा तो पिछले गेट पर। मुझसे जहां एक कदम नहीं चला जा रहा था वहां अब इतना लंबा रास्ता पार करके बस अड्डे में जाना था। शक्ति संचय करने के लिए एक सिगरेट जलाई। थोड़ी ऊर्जा बटोरकर अंदर गया, लेकिन काउंटर पर पहुंच कर पता चला कि पानीपत जाने वाली किसी बस में सीट नहीं है। इस बीच लगातार रवि का फोन आ रहा था। अपनी लाचारी से दो-चार कराने में बाद मैंने अपने सखा से माफी भी मांग ली, लेकिन उनके पास नहीं जाने का अफसोस भी था। मैं तो यही सोचकर नहीं गया कि ऐसी दुर्गति कराकर क्यों उन्हें भी परेशान करूं? पर अफसोस होना था तो हो रहा था। सुबह से परेशानी झेलते-झेलते शाम हो गई। इससे तो अच्छा था कि रवि के घर ही चला जाता। कम से कम आराम से सो तो जाता। पर देर हो चुकी थी। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं कुछ सोच भी सकूं, दो कदम चलना तो दूर की बात। पता नहीं कब बस मिलेगी? मिलेगी भी या नहीं? खाना कहां खाऊंगा? तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो? इससे भी बड़ी चिंता यह कि कहीं मुझे आंख लग गई और कोई किताबें ले उड़ा तो? तितली क्या मानेगी कि मैं सच कह रहा हूं? वह तो ठगा सा महसूस करेगी। मन में उभर रहे विचार ने मुझे बेचैन कर दिया। मैंने मन ही मन कहा- अम्बे! सारी परेशानियां के मेरे ही हिस्से में डाल दी है तुमने। अब पानीपत कैसे जाऊंगा? खड़ा होकर जाने की हिम्मत तो दूर घंटे भर से अधिक बैठ भी नहीं सकता। फिर यह सोचकर बस अड्डे बाहर निकल आया कि पंजाब रोडवेज या चंडीगढ़ जाने वाली बस में बैठ जाऊंगा। भगवती की कृपा से बाहर ज्यादा देर खड़ा नहीं रहना पड़ा। पंजाब रोडवेज की बस में चढ़ गया। करीब 7:15 बजे बस में बैठा था और 9 बजे तक यह पता नहीं चल पाया कि मैं कहां तक पहुंचा हूं। मन लगाने के लिए मैं अपने दोस्तों को मैसेज करने लगा। रह-रह कर ड्राइवर और बस की रफ्तार पर भी निगाह डालता। बाहर देखने की कोशिश करता, लेकिन चारों तरफ अंधेरे के चलते पता नहीं चल पा रहा था कि हम कहां तक पहुंचे हैं। अब तो मेरा बैठना भी मुहाल था। मैंने बस रुकवाई- चलते-चलते ड्राइवर को कहा, भाई आप में गज़ब का पेशेंस है। काश! भगवान मुझे भी इतना धैर्यवान बनाता। वह सोच रहा होगा कि पता नहीं मैं क्या बोल रहा हूं, शायद पागल भी समझा हो। यह समालखा था। मैंने फिर माथा ठोक लिया। कुछ देर और बैठा रहता तो पानीपत नहीं आता क्या? यहां से मैंने हरियाणा रोडवेज की बस पकड़ी, 20 मिनट में ही उसने पानीपत में उतार दिया। बोले तो... एकदम क्रैक सेवा। ऐसा लग रहा था कि ड्राइवर घर में पत्नी से झगड़कर और ठानकर निकला हो कि उसे विधवा बना के ही दम लेगा। बस अड्डे पर रिक्शेवालों को देखकर मुझे बड़ी आत्मिक  शांति मिली। लेकिन यह क्या? मुझसे तो चला ही नहीं जा रहा था। पीड़ा अपने चरमोत्कर्ष पर थी। रिक्शावालों से पूछा तो कोई 50 रुपए मांगे तो कोई पूछे सेक्टर 6 किधर है। पांच-सात मिनट तक मगजमारी करने के बाद मैंने अनुज लोकेश को फोन किया, लेकिन वह एडीशन में व्यस्त था। फिर अपने डिस्ट्रिक्ट आईकॉन (हाल ही में एक संस्था ने उन्हें यह उपाधि दी है) अजय राजपूत से कहा कि भाई, मैं नहीं चाहता कि भरी जवानी में भगवान मुझे उठाए। तुम ही उठाने आ जाओ। अपने द्विचक्र वाहन पर लादकर ले जाओ। उन्होंने तत्काल एक साथी को भेज दिया। भला हो उसका, मुझे घर तक पहुंचा दिया। अब इतनी हिम्मत नहीं थी कि कुछ बना सकूं। एक कोशिश की, लेकिन दो पल में ही हिम्मत जवाब दे गई। सोने गया तो नींद नहीं आई। फिर कब सोया, पता नहीं।

शनिवार, 30 जनवरी 2010

घो घो रानी कितना पानी