बुधवार, 15 मार्च 2017

एक गदहे की आत्‍मकथा

आज जबकि गदहे उन्‍मूलन के कगार पर पहुंच गए हैं, ऐसे में दिल्‍ली जैसे मेट्रो शहर में इसे देखकर आश्‍चर्य के साथ मुझे खुशी भी हुई। दरअसल, चुनाव में गदह चर्चा के बाद से मैं सोच रहा था कि किसी गदहे का साक्षात्‍कार करूं। चूंकि चर्चा का विषय कच्‍छ का गदहा था, इसलिए थोड़ा संकोच हो रहा था। कहां कच्‍छ और कहां दिल्‍ली। इसलिए आइडिया ही ड्रॉप कर दिया। लेकिन एक दिन घर से निकलते समय गली में ही एक गदहा दिख गया। वह निरीह भाव से रेत की बोरियां लादे चला आ रहा था। अवसर सामने देखकर मैं गदहे को रोकने के लिए उसके सामने खड़ा हो गया। लेकिन उसने नजर उठाकर मुझे देखा तक नहीं और रास्‍ता बदलकर जाने लगा।

मैंने गुजारिशी लहजे में कहा- गर्दभ जी। आपसे बात करनी है। अपने व्‍यस्‍ततम समय में से मेरे लिए भी थोड़ा वक्‍त निकालिये। गदहा रुक गया, लेकिन कुछ बोला नहीं। पास गया तो उसने सिर हिलाकर जैसे स्‍वीकृति दे दी कि जल्‍दी पूछो, क्‍या पूछना है। मैंने कहा, गर्दभ जी… अब तक तो आपका समुदाय नेपथ्‍य में था, लेकिन अचानक … राजनीति के शिखर पर पहुंच गया। उसने कहा- मुझे तत्‍सम (गर्दभ) कहो, चाहे तद्भव (गदहा)… कोई फर्क नहीं पड़ता। रही बात राजनीति की तो मेरा और न ही हमारे समुदाय का इससे कोई वास्‍ता है। हमें जान-बूझकर षड्यंत्र के तहत इस दलदल में घसीटा जा रहा है। मैंने उससे तफ्सील से बताने को कहा तो उसने अपना दर्द बयां किया। उससे बातचीत के अंश को अक्षरश: प्रस्‍तुत किया जा रहा है-

हमें गदहा, गधा, गर्दभ, वैशाख नंदन … कुछ भी कह लो। हम जो हैं, तीनों काल में वही रहेंगे। बोझ ढोना ही हमारी नियति है और हम इसे स्‍वीकार कर चुके हैं। मुझे या मेरे समाज को कौन पूछता है? सदियां बीत गईं… किसी ने तो नहीं पूछा। धोबी अपने स्‍वार्थ के लिए हमारे पूर्वजों को अपने घर ले आया। तब से अब तक पीढ़ी दर पीढ़ी हम पूर्वजों के उस फैसले का निर्वहन करते आ रहे हैं। कोई मैदानी इलाके मे हम पर बोझ ढ़ोता रहा तो कोई पहाड़ों पर हमारा इस्‍तेमाल अपने सपनों का घर बनाने के वास्‍ते ईंट और बालू ढोने के लिए करता रहा। परंतु किसी ने न तो अच्‍छा खाना दिया, न घर दिया, न ही सर्दी-गर्मी और बरसाती कपड़े। फिर भी किसी से कोई शिकवा-गिला नहीं किया। आज भी हम हर मौसम में मौसम में खुले आकाश के नीचे रहते हैं। हाड़तोड़ मेहनत के बाद सूखी घास ही खाते हैं।

हम सर्व सुलभ और अति साधारण प्राणी हैं। यूं कहूं कि यह धोबी ही था जिसने हमारी उपयोगिता खोज निकाली थी। हम एक धोबी के लिए अर्थशास्‍त्र हैं। उसकी आर्थिक विकास का माध्‍यम हैं। उसके लिए हम BMV से कम भी नहीं हैं। रूखी-सूखी घास खाकर भी उसके यहां पड़े रहे, कपड़ों के गट्ठर ढोते रहे। मैदानी और पहाड़ी इलाकों में कहीं-कहीं हमने मजदूरों को रिप्‍लेस भी किया है। यह सब हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन नेताओं और राजनीति की आंच अपने समाज की तरफ कभी पहुंचने नहीं दी। फिर भी नेताओं ने हमें इस दलदल में घसीट लिया। यह जानते हुए कि हमारे पास न कोई ‘आधार’ है, न कोई वोटर कार्ड और न ही कोई चुनाव क्षेत्र। फिर भी जब चुनाव का बोझ लाद ही दिया तो पहली बार हमारे समाज का एक प्रतिनिधि गर्दभ सिंह यादव लखनऊ कैंट क्षेत्र से नामांकन भरने गया। लेकिन पुलिस वालों ने ड़डे फटकार कर उन्‍हें भगा दिया।

विद्रोह करना हमारे खून में नहीं है। हम तो सहज और समर्पण भाव से बस चाकरी करना जानते हैं। हमें मंद बुद्धि कहा जाता है। इनसान हमारा नाम लेकर किसी को भी बोल देते हैं- गदहा कहीं का… एकदम गदहे हो… ये तो गदहा ही रहेगा… गदहे की तरह लगे रहो। गदहा कहे जाने पर हमें कोई तकलीफ नहीं होती, क्‍योंकि हम हैं। हम निठल्‍ले नहीं हैं, लेकिन जिसे हमारा नाम लेकर संबोधित किया जाता है, उसे जरूर तकलीफ होती होगी। इतना तक तो ठीक था… लेकिन चुनावी दंगल में बेवजह घसीटा जाना मुझे और हमारे समुदाय को सचमुच अच्छा नहीं लगा। हम न तो टीवी देखते हैं और न ही अखबार पढ़ते हैं। बस लोगों से ही पता चल जाता है कि लोग हमारे बारे में क्‍या सोचते हैं। सुना है, कच्‍छ के गदहों के साथ अमित जी को गुजरात टूरिज्म का प्रचार करते हैं। प्रचार के बहाने हमारे समाज को थोड़ी फुटेज मिल गई तो नेताओं के पेट में दर्द क्‍यों उठने लगा? इससे तो यही साबित होता है कि उनका बुरा वक्‍त चल रहा है और वे हमें अपना बाप बनाने वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहे हैं।

अफसोस सिर्फ इस बात की है कि वोट पाने के लिए हमें मोहरा तो बनाया गया, लेकिन हमारे समाज को हिकारत की नजर से ही देखा गया। कच्छ, जैसलमेर और जोधपुर की गोरखर नस्ल का गधा ही नहीं, तिब्बत के पहाड़ों का क्यांग नस्ल का गधा भी उतना ही मशहूर है।

नेताजी को शायद यह मालूम नहीं, दो गुणसूत्र और अधिक होते तो हम भी घोड़ा बन सकते थे। अफसोस… विधाता ने दो गुणसूत्र कम दिए। आज तक हमें सूखी घास के अलावा चना भी नसीब नहीं हुआ। हां, कभी-कभी हरी घास का मैदान भी मिल जाता है। लेकिन गलती से किसी के खेत के पास से भी गुजरते हैं तो हम पर बेभाव डंडे पड़ते हैं। आज तक किसी ने हमारे खाने-पीने की परवाह नहीं की। फिर भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि गदहे च्वनप्राश खा रहे हैं। हमने तो नहीं चखा कभी। पतंजलि वाला छाेड़िए, सादा च्वनप्राश भी देखना नसीब नहीं हुआ, खाना तो दूर की बात। फिर भी हम सेहतमंद रहते हैं। हम पर ईश्‍वर की यही सबसे बड़ी और विशेष कृपा है। तभी तो आप लोग कहते हैं- अल्लाह मेहरबान तो गदहा पहलवान।

चुनाव में अपने समाज की छीछालेदर से हम बहुत आहत थे। भला हो प्रधान सेवक जी का, जिन्‍होंने यह कहकर हमारा सम्‍मान बढ़ा दिया कि हम उनकी प्रेरणास्रोत हैं। वह हमारी लगन और मेहनत से प्रेरणा लेते हैं। हमें वफादार और परिश्रमी कहकर हमारे समाज का मान बढ़ाया है। इसके लिए हमारा समाज उनका ऋणी रहेगा। उन्‍होंने बिल्‍कुल सच कहा है कि हम कम खर्च में भी संतुष्‍ट रहते हैं।

अपनी पूरी व्‍यथा सुनाने के बाद जैसे गदहे की चेतना जागी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो मालिक डंडा लहराते हुए भागा चला आ रहा था। गालियां दे रहा था…स्‍साले अभी तक यहीं खड़ा है। ठहर बताता हूं। डर के मारे गदहा तेज कदमों से भागने लगा और मैं वहीं खड़ा गदहे की विवशता देखता रह गया। एक बात मेरे दिल को छू गई…उसने अपनी बात नहीं की, बल्कि पूरे समाज का प्रतिनिधित्‍व किया। सच में गदहे मालिक ही नहीं, अपनी कौम के प्रति भी वफादार हैं।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

भैंस पानी में गई, राम कब आएंगे?



ख़याल कभी-कभी केवल साहिर लुधियानवी के जेहन में ही नहीं आता था। यह ख़याल मेरे... आपके...हम सभी के दादा-पिताजी और यहां तक कि हमारे बच्‍चों के जेहन में भी गाहे-बजाहे आ ही जाता है। अलग बात है कि हम में से अधिकांश इसे तवज्‍जो नहीं देते और एक ख़याल भर समझकर झटक देते हैं। लेकिन साहिर साहब इसे कैश कराने में सफल रहे। कहानी भी उन्‍हीं की, ख़याल भी उन्‍हीं का और संगीतकार भी उन्‍हीं का खोजा हुआ। बस मेहरबानी की तो chopra’s ने। साहिर साहब ने पूरा ख़याल chopra’s की डिमाण्‍ड पर लिखा और यश बटोर ले गए। अब जब कभी-कभी मेरे जेहन में genuine ख़याल आता भी है तो उस पर copy & paste का तमगा जड़ दिया जाता है। अब बात निकली है तो दूर तलक भी जाएगी।
मेरे जेहन में एक ख़याल बार-बार घूम-फिर कर लौट आता है। गाय न होती तो गोबर न होता। भैंस पानी में नहीं जाती तो राम भला करने कभी नहीं आते। आ़खि़र यह ख़याल क्‍यों आता है? उपरोक्‍त पंक्ति के रचयिता तो शर्तिया कोई अज्ञात नामवर ही होंगे, जिसे समकालीन साहित्‍य और दर्शन में स्‍थान नहीं मिला। लेकिन अभी की तरह हर काल में इसी तरह हर किसी के सामने आता रहा होगा। पहले बाद वाली बात पर बाद में गलथेथरी करूंगा। ...गई भैंस पानी में, भला करेंगे राम...से चर्चा शुरू कर रहा हूं। यह बात किसी चरवाहे द्वारा कही गई होगी। उसके समक्ष परिस्थितियां कुछ ऐसी रही होंगी कि प्रचण्‍ड गर्मी के मौसम में वह भैंस चरा रहा होगा। चरते-चरते भैंस किसी तालाब, पोखर या नदी में उतर गई होगी...नहाने और पानी पीने के लिए। यह देखकर चरवाहा डर गया होगा। चूंकि उसे तैरना नहीं आता होगा और जंगल या बियाबान में उसकी मदद की पुकार कोई सुन भी नहीं पाया होगा, जो भैंस को पानी से बाहर निकालने आ सके। अंत में उसने रामजी को याद किया होगा। जैसा अक्‍सर होता है। मुसीबत में पड़ा व्‍यक्ति चाहे कितना भी नास्तिक हो....उसके पास अंतिम विकल्‍प प्रभु सिमरन ही होता है। हां तो चरवाहा इसी उम्‍मीद में भैंस को पानी में जाता देख रहा होगा कि रामजी आएंगे और मेरा उद्धार या भला करेंगे। अब उम्‍मीद तो अवास्‍तविक है, बिना इच्‍छाशक्ति और प्रयास किए यथार्थ की धरातल पर कैसे उतर सकती है। ठीक उसी तरह भैंस स्‍वेच्‍छा से तब तक पानी से बाहर नहीं आती, जब तक कि उसे पूरी तरह ठंढक नहीं मिल जाए या उसे हांक कर बाहर न निकाला जाए। वैसे भी भैंस को गर्मी कुछ ज्‍यादा ही लगती है।
दूसरी परिस्थिति कुछ ऐसी रही होगी। दो चरवाहे गाय-भैंसों को चरा रहे होंगे। एक यह कहकर किसी पेड़ की छांह में सुस्‍ताने चला गया होगा कि...भाई थकान सी हो रही है। थोड़ी देर के लिए सुस्‍ताने जा रहा हूं। तुम ज़रा मेरी गाय-भैंसों का ख़याल रखना। यह तो मानव स्‍वभाव है कि य‍दि कोई विचार किसी व्‍यक्ति के जेहन में आता है और पहले कह देता है, तो वह बाज़ी मार लेता है। अलग बात है कि वही या कुछ वैसा ही ख़याल दूसरे के मन में भी आ रहा हो, लेकिन संकोच के मारे वह कह नहीं पाया। लेकिन जब अपना काम अढ़ा कर पहला शख्‍स जाने लगा तो दूसरा एकदम से चिढ़ गया होगा। उसने सोचा होगा...हम दोनों साथ ही आए, लेकिन यह थक गया। हुह.. अपनी ऐसी-तैसी कराओ। लेकिन ऊपरी मन से उसने अगले को जाने कह दिया। पहले शख्‍स के जाने के बाद जब उसकी भैंस पानी में चली गई होगी, तो पशुओं की निगरानी का दायित्‍व जबरन सौंपे जाने पर दूसने उसकी अनदेखी की होगी। यह सोचकर कि मेरी भैंस पानी में थोड़े न जा रही है। जिसकी जा रही है, वह समझे। मेरा क्‍या?
जब पहला जागा होगा तो अपनी भैंस को गहरे पानी में देख कर कांप गया होगा। वह दहाड़ मार कर रोने लगा होगा कि अब क्‍या होगा? यह सोच-सोच कर पछाड़ खा रहा होगा कि भैंस को अपने साथ घर न ले गया तो बेभाव जूते पड़ेंगे। ऐसी स्थिति में दूसरे ने उसे सांत्‍वना दी होगी... रामजी पर भरोसा रखो। वही भला करेंगे। अब रामजी आए होंगे कि नहीं...उस काल में जाकर यह देखने की शक्ति मुझ में होती तो मैं यहां घास नहीं काट रहा होता। न ही रोज़ साठ हज़ार (साठ हज़ार वाली बात गूढ़ विषय है, जिसे मेरे आसपास रहने वाले ही समझ सकते हैं) के लिए तड़पते और मायूस होते अनुजों को रोज़ यह कहकर ढांढस बंधाता कि सब्र कर! ऊपर वाला सब देख रहा है। लाख टके का सवाल यह कि रामजी भैंस के पानी में जाने पर ही क्‍यों आते हैं? पहले अलर्ट जारी नहीं कर सकते?
गाय और गोबर पर चर्चा बाद में।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

मैं भैरव हूं

बात ज्यादा पुरानी नहीं है। 2009 सितंबर के आखिरी सप्ताह यानि नवरात्र की है। नवरात्र के दौरान पूरे नौ दिन मैं भगवती की पूर्ण श्रद्धा और सात्विकता से उपासना करता हूं। यूं कहूं कि मैं उनकी मर्जी के खिलाफ कभी कुछ करता ही नहीं। वही राह सुझाती हैं और मैं उसी पर अब तक चलता आया हूं। दिसंबर 2008 से मेरे जीवन में कुछ ऐसी हलचल हुई जिससे मैं लगातार नौ माह तक जूझता रहा। जिंदगी का कोई मतलब नहीं रह गया था। दुर्भाग्य के ये नौ मास मैं कभी नहीं भूलूंगा। इससे पहले मैंने खुद को इतना कमजोर, लाचार और बेबस कभी नहीं पाया। इस दौरान मेरा ब्लड प्रेशर 176/97 रहता था, लेकिन काम के समय और तनाव के पल में यह और ज्यादा हो जाता था। नींद तो आती ही नहीं थी। कुल मिलाकर पागलपन की स्थिति थी। ब्लड प्रेशर जांचने के बाद एक बार डॉक्टर तो मेरे बारे में सुनकर चक्कर सा खा गया। उसने कहा- भाई सात दिन तक सुबह-शाम आपका ब्लड पे्रशर जांच करुंगा, इसके बाद ही कुछ कह पाऊंगा। 
हां, नवरात्र के दौरान मैं कहीं नहीं जाता। अपने कमरे पर ही रहना पसंद करता हूं। ... लेकिन इस बार सहकर्मी अनुजों की जि़द के आगे मुझे झुकना पड़ा। रात को करीब दो बजे या इसके बाद घर लौटते समय उनके  कमरे पर चला जाता। इन्हीं दिनों इंटरनेट पर मेरा परिचय एक महिला से हुआ। वे रेकी मास्टर हैं। मैं पानीपत में रहता हूं और वे करीब 35 किलोमीटर दूर करनाल में रहती हैं। जब उन्हें पता चला कि मुझे नींद नहीं आती और मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है तो उन्होंने मुझे किसी अच्छे डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी। जब मैंने कहा कि मैं दवाई नहीं खाता। अपनी बीमारी मैं खुद ही ठीक कर लेता हूं तो उन्होंने कहा, 'मैं तुम्हें हीलिंग भेजती हूं। कुछ महसूस हो तो बताना। रात करीब डेढ़ बजे जब घर लौट रहा था तभी रास्ते में मुझे अहसास हुआ कि कोई मुझ तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है। पूरे शरीर में सिहरन सी हो रही थी। एक विलक्षण अनुभूति हो रही थी, मुझे बहुत आनंद आ रहा था। यह उनकी ओर से भेजी गई ऊर्जा थी जो मुझमें समा रही थी। मैं अतिशीघ्र कमरे पर पहुंचना चाहता था। मेरा निवास दफ्तर के पीछे सेक्टर-6 में है। कमरे पर पहुंच कर मैं कुर्सी पर बैठ गया ताकि इस शक्ति को और बेहतर ढंग से महसूस कर सकूं। काफी देर तक बैठा रहा, लेकिन अब वैसी सिहरन नहीं हो रही थी। मुझे नींद भी अच्छी आई। अगली रात करीब 11 बजे उनसे बात की तो उन्होंने कहा, 'चल आज तुझे कुछ और दिखाती हूं। मैं भी तैयार हो गया। पांच मिनट के भीतर मेरी आंखें स्वत: ही बंद हो गईं और एक क्षण को मां काली का रूप दिखा। बड़ी-बड़ी आंखें, खुले केश और सिर को गोल-गोल घुमाती हुई। इसके बाद पूरे शरीर में फिर वही सिहरन। मुझसे यह खुशी संवरण नहीं हो रही थी। मैं इसे किसी ऐसे शख्स से बांटना चाहता था जो मेरी बात को समझ सके। किन्तु दफ्तर में दो लोगों को छोड़कर मेरी किसी से उतनी आत्मीयता नहीं है। उनमें एक अमित हैं और दूसरी निवेदिता भारद्वाज। मैं भागकर बाहर गया, मैं बेतहाशा हंस रहा था। वह एक अद्भुत और विलक्षण खुशी थी। जि़ंदगी में पहली बार मुझे इसकी अनुभूति हुई थी। काश! मैं उस पल को शब्दों में बयां कर पाता। बहरहाल 10-15 मिनट तक मैं उसी आध्यात्मिक आनंद में रहा। अंतत: मैंने उन महिला को मोबाइल से मैसेज किया। हालांकि उन्होंने अपना नंबर मुझे दिया था, लेकिन अब तक उनसे कभी बात करने या उनसे संपर्क करने की जरूरत नहीं महसूस हुई थी। आध्यात्मिक प्रवाह में स्वत: ही मैंने उन्हें मां का दर्जा दे दिया। लगा जैसे मुझे वह गुरु मिल गया जिसकी मुझे तलाश थी। 
बचपन से ही मुझे शरीर पर भभूत लपेटे, हाथ में कमंडल और धूनी लिए जटाओं वाला एक ऐसा साधु दिखता है जो हिमालय की तलहटी में भटक रहा है। जैसे उसे किसी गुरु की तलाश हो। बहरहाल, मां काली का वह रूप दो दिन तक मुझे रोमांचित करता रहा। अब मैं सोता तो सीधे नींद पूरी होने पर ही उठता। इस दौरान यदि किसी को फोन भी आया तो उससे बात करके फिर सो जाता, जबकि पहले ऐसा नहीं था। मुझे सदैव इस बात का डर रहता था कि कोई फोन न कर दे, क्योंकि एक बार आंख खुलने के बाद मेरी नींद ही उचट जाती थी। मेरा ब्लड पे्रशर भी आश्चर्यजनक ढंग से नॉर्मल हो चुका था। पहले बात-बात पर दुर्वासा की तरह क्रोध करने वाला मैं अब लोगों की बात सुनता। इसी तरह नवरात्र के पावन नौ दिन बीत गए। 
आज विजयादशमी है। काम से निवृत्त होने के बाद मैं अपने कमरे पर पहुंचा। इससे पहले कि दरवाजा खोलता, मेरे एक साथी की आवाज कानों में पड़ी। शायद किसी से उनका झगड़ा हो रहा था। उन्होंने मुझे आवाजा दी- बाबा ज़रा आना। (मेरे सहकर्मी मुझे इसी नाम से बुलाते हैं।) मैं भाग कर उनके पास पहुंचा। आवाज सुनकर मेरे अनुज जो घर जा रहे थे, वे भी आ धमके। खैर, झगड़ा शांत करा कर हम अपने अपने घर को चले, लेकिन अनुज जि़द करने लगे कि बाबा हमारे साथ चलिए। अब तो नवरात्र भी खत्म हो गया। खाना हमारे साथ खाइए। ना-नुकुर के बाद मैं उनके साथ चल पड़ा। उनका कमरा इसी सेक्टर में मैदान के पिछले हिस्से में था। पीछे कोने पर ट्यूबवेल लगा है और दो-तीन पेड़ों को मिलाकर झुरमुट जैसा बनता है। सहसा मुझे लगा कि पेड़ों के झुरमुट में कोई है जो छिपने की कोशिश कर रहा है। वैसे मैं बता दूं- मैं वहमी नहीं हूं। यदि कोई कितना भी दबे पांव मेरे पीछे या आसपास से गुज़रने की कोशिश क्यों न करे, मुझे पता चल जाता है। मैं सोते समय भी सतर्क रहता हूं। हालांकि मैंने कुछ पल के लिए रूक कर देखने की कोशिश भी की, लेकिन अंधेरे के कारण मुझे पता नहीं चला। 
अब हमलोग कमरे में बैठे थे। मैं दरवाजे पर ही बैठा था, अचानक मेरे शरीर में सिहरन होने लगी। मैंने आंख बंद कर देखने की कोशिश की कि यह ऊर्जा किस ओर से आ रही है। मुझे एक सुनसान और गंदी सी जगह दिखाई दी। यह रेकी मास्टर की ओर से तो कतई नहीं थी। फिर भी मैंने सोचा शायद किसी और मास्टर की ओर से आ रही होगी। इसलिए मैं उसे ग्रहण करता गया। रेकी या मेडिटेशन में एक शृंखला बनती है जब हम ऐसे किसी एक व्यक्ति के संपर्क में आते हैं जो ऊर्जा का स्रोत है तो औरों से भी जुड़ जाते हैं जिनके संपर्क में अगला व्यक्ति रहता है। घंटा भर वहां बैठने के बाद मैं अपने कमरे के लिए निकल पड़ा। अभी भोर के कोई चार बज रहे थे। उसी रास्ते से निकला, इस बार लगा जैसे पेड़ से कोई मेरे ऊपर कूदा। मुझे इसका अहसास हुआ, पूरा शरीर सिहर उठा। हालांकि डर जैसा कुछ अनुभव नहीं हुआ, लेकिन हृदय की गति सामान्य से अधिक जरूर थी। मैं कमरे पर पहुंचा तो थोड़ा भावुक हो गया। फिर एक भावुक मैसेज उन महिला को कर दिया- मां! मेरे लिए सादा भोजन बनाकर रखना, मैं एक-दो दिन में आपके यहां आऊंगा और आपकी शिकायत दूर कर दूंगा। उनकी शिकायत थी कि पुरुष अभिमानी होते हैं और झुकते नहीं। इसके बाद अचानक मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। अब तक जिन्हें मैं मां कह कर संबोधित कर रहा था, अब मेरे मुंह से अनायास उनके लिए गालियां निकल रही थीं। फिर मैंने एक मैसेज किया- एक मिनट के अंदर मुझे फोन कर नहीं तो तेरा सर्वनाश कर दूंगा। आश्चर्य तो यह था कि जो बात उन्होंने मुझे बताई नहीं थी मैं उसे जानता था। ऐसा नहीं कि यह मेरी काल्पनिक उड़ान थी। कल्पना का सहारा मैं सिर्फ कविताएं या कहानियां लिखने के लिए ही करता हूं। अभी एक मिनट भी नहीं हुआ था कि मेरा पारा और चढ़ गया। फिर मैंने उन्हें फोन कर दिया। उस समय सुबह के करीब 5 बज रहे थे।
- हरामजादी, मेरे बारे में सबकुछ पूछ लिया। अपने बारे में छिपाती है?
महिला- क्या हुआ अर्जुन?
- चुप! बीच में मत बोल। चुपचाप सुन।
महिला- हां... (थोड़ी घबराहट में), बोल... मैं सुन रही हूं।
- पहले बिस्तर से उठ। मुझे देख... दिख रहा हूं।
महिला- उठ गई। अब बता।.... नहीं, तू नहीं दिख रहा।
- सामने आ...थोड़ा और सामने। दरवाजे के पास खड़ी हो।
महिला- दरवाजे के पास आ गई...
- मैं दिख रहा हूं?
महिला- हां... तू चौकड़ी मार कर बैठा है।
- मुझे पहचाना?
महिला- नहीं... तू बता। तू कौन है?
- मैं भैरव हूं। 
इस तरह काफी देर तक मैं उस भद्र महिला को अनाप-शनाप बकता रहा। उस वक्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे कमरे में दो लोग मौजूद थे। एक बुजुर्गवार जो मुझे सोने के लिए कह रहे थे, दूसरा एक 30-32 साल का सामान्य कद काठी का एक युवक जो मुझसे थोड़ी दूर पर खड़ा था। मुझे उसका चेहरा आज भी याद है। हालांकि मैंन आज तक न तो इस शख्स से मिला था और न ही कभी देखा था। मैंने ये बातें उन महिला को भी बताईं। इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि तू कहीं कोई सिद्धि तो नहीं कर रहा था? 
- सारी शक्तियां तो मेरी ही हैं? मुझे सिद्धि की जरूरत क्यों पडऩे लगी? भवानी मेरी मां है। मुझे बिना मांगे सबकुछ देती हैं। मुझे किसी सिद्धि की जरूरत नहीं। 
इसके बाद भी काफी कुछ बातें हमारे बीच हुई। आखिर में मैंने कहा- चल अब फोन रख... मेरे जाने का समय हो गया। सूर्योदय से पहले मुझे जाना है। इसके बाद मैंने फोन काट दिया। उस समय 6:10 बज रहे थे। इसके बाद मैं कमरे में ही इधर-उधर टहलने लगा। मुझे इस बात का पूरा आभास भी था कि आज तक मैंने ऐसा नहीं किया। अब ऐसा कैसे हो रहा है। एक अजीब बेचैनी और क्रोध था मेरे अंदर। साथ ही, ऐसा लग रहा था जैसे वह युवक मेरे पीछे-पीछे चल रहा है। 
मैंने सोने की कोशिश की, लेकिन सो नहीं सका। करीब तीन बजे जब दफ्तर पहुंचा तो रिसेप्शन से लेकर न्यूजरूम तक सभी मुझे देख रहे थे। उसी दिन अमित का जन्म दिन था। हम सभी कांफे्रंस रूम में एकत्र हुए। केक कटा, लेकिन मेरे चेहरे से रौनक गायब थी। मुझे लग रहा था कि मेरा दम घुट जाएगा इतने लोगों के बीच। एक शक्ति मुझे वहां से बाहर ले जाने की कोशिश कर रही थी। चूंकि अमित मेरे बहुत अजीज हैं, इसलिए मैं चाहकर भी वहां से नहीं हट सका। मुझे बात-बात पर क्रोध आ रहा था, लेकिन मैं बिल्कुल चुप था। मेरा दिमाग दोनों ओर काम कर रहा था। मैं स्वयं से ही जूझ रहा था, लेकिन अपना सकारात्मक पक्ष नहीं छोड़ रहा था। 
करीब दस बजे पहला डाक एडिशन छोड़कर मैं सिगरेट पीने के लिए बाहर निकला, लेकिन कदम खुद-ब-खुद सेक्टर की ओर मुड़ते चले गए। जहां तक याद है काम के वक्त आज तक मैं दफ्तर से इस तरह बाहर नहीं गया। कैंपस या ज्यादा से ज्याद कैंपस से बाहर जीटी रोड के किनारे जरूर चला जाता हूं। हां जब मैं कॉलोनी की ओर जा रहा था मुझे अहसास हुआ जैसे कोई मुझे निर्देश दे रहा हो। मैं यह बताना भूल गया कि उन महिला और उनकी माता जी मेरे बदले व्यवहार को लेकर काफी चिंतित थीं। हालांकि मैं उन दोनों से कभी नहीं मिला था। फिर भी मेरे प्रति उनकी चिंता एक मां की ममता को दर्शाती है। उनका मुझसे बस यही लगाव था कि मैं रेकी के क्षेत्र में बहुत आगे जा सकता हूं। इसलिए वे मुझे मैसेज करती रहीं कि अर्जुन तुम कैसा महसूस कर रहे हो? लेकिन मैं हर बार उन्हें यही कहता कि मैं भैरव हूं। मुझे किसी अहसास की जरूरत नहीं है। बहरहाल मैं एक बार फिर अपनी सीट पर बैठ गया। इतना सबकुछ होने के बाद मैंने अपनी विक्षिप्तता को न तो काम पर हावी होने दिया और न ही किसी के समक्ष उजागर होने दिया। अभी मैं सीट पर बैठा ही था कि मुझे लगा जैसे कोई मुझे बुला रहा है। मैं क्रोध में तमतमाता हुआ बाहर निकला, लेकिन गेट के पास पहुंचकर सोचा.. अब बहुत हुआ... ये कौन है जो मुझे नचा रहा है? क्या बला है यह? मुझे तो कोई शक्ति कमजोर बना ही नहीं सकती। इतना ठानने के बाद मैंने सिगरेट पी और वापस न्यूजरूम में आकर काम में जुट गया। इसके बाद रात करीब 12 बजे मैंने हल्कापन महसूस किया। तब वो महिला भी ऑनलाइन हो चुकीं थीं। उनसे फिर उसी आत्मीयता से बातचीत हुई। उन्हें बड़ी खुशी हुई। मैंने जब उनसे पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा- तेरा आत्मबल तुझे फिर से खींच लाया। पर वह क्या था? क्या तुम उसे जानते हो? लेकिन मेरा एक ही जवाब था- ये तो मैं खुद नहीं जान पाया। हालांकि वे कहती हैं कि हो सकता है कि यह किसी तरह की क्लीनजिंग हो सकती है। लेकिन मैंने जो झेला उसे मैं ही जानता हूं। मुझे इसका पूरा अहसास था कि मेरा मस्तिष्क किसी शक्ति से लगातार जूझ रहा है। ऐसा प्रतीत होता था जैसे दिमाग की नसें फट जाएंगी। मैं किसी भी पल पागल हो जाऊंगा। उस रात मैं सीधे अपने कमरे पर गया। पीछे से मेरे अनुज आ धमके और मुझे अपने यहां ले जाने की जि़द करने लगे। काफी देर तक मैं टालता रहा, लेकिन अंतत: मुझे उनकी जि़द के आगे झुकना पड़ा। दरअसल मैं डर रहा था, उस रात के वाकये से। मैं इस बात के लिए डर रहा था कि कहीं फिर मैं उस शक्ति के चंगुल में न फंस जाऊं। यह विचार मन में आते ही मैंने ठान लिया, अब तो चलना ही पड़ेगा। मैं उन्हीं रास्तों से उनके कमरे पर गया। उसी तरह दरवाजे पर बैठा। कुछ देर बाद फिर मेरे शरीर में सिहरन हुई। लगा जैसे कोई मुझ तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है। मैंने आंख बंद की तो फिर वही सुनसान दृश्य दिखा। ध्यान लगाया तो लगा जैसे कोई सफेद आकृति मेरे ठीक ऊपर छत पर बैठी है। यह आकृति कोई और नहीं उसी युवक की थी जो मुझे कमरे पर दिखा था। (ऐसा लिखते वक्त अभी भी मेरे शरीर में सिहरन हो रही है।) मैं झटके से बाहर निकला और ऊपर देखा। फिर लड़कों से पूछा- यह बताओ पीछे वाले कमरे की छत पर कोई पीपल का पेड़ है क्या?
उन्होंने कहा- हां, है।... लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं। मैंने कहा- इस घर में बाथरूम और टॉयलेट के बीच मुझे नकारात्मक जगह दिख रही है। हालांकि यह पूरा घर ही नकारात्मक है। फिर मैं छत पर भी गया। उन लड़कों से कहा- यह घर ठीक नहीं है। तुम लोग हमेशा मदहोशी में ही रहोगे इस घर में। कोई रूटीन नहीं होगा। जैसे-तैसे ही रहोगे। यदि बिना वजह चिंता से दूर रहना है तो इस मकान को छोड़ो। फिर मुझे ध्यान आया करीब एक साल पहले इसी गली में एक लड़के ने ख़ुदकुशी कर ली थी. 
उन लोगों ने मेरी बात मानी और कुछ दिनों में ही उन्होंने कमरा शिफ्ट कर लिया। कमरा बदलते ही उनकी दिनचर्या में भी बदलाव आया। राहुल भी इस बात को मानता है कि उनके रहन-सहन में काफी बदलाव आया। लेकिन मुझे आज तक यह पता नहीं चल पाया कि आखिर वह शक्ति क्या थी। हां, सिर्फ अमित ही थे जिन्होंने मेरे भीतर आए एकदिवसीय बदलाव को नोटिस किया था। उनके मुताबिक मेरी आंखें अप्रत्याशित तरीके से लाल थीं, जिसमें सिर्फ क्रोध ही क्रोध समाया हुआ था।

मैं भैरव हूं-2

वर्ष 2009। नवरात्र। मैं एक मंत्र पर प्रयोग कर रहा था। मंत्र सदैव ही मुझे आकर्षित करते हैं। नवरात्र के आखिरी दिन मैं मेडिटेशन कर रहा था। मुझे सागर के किनारे एक पहाड़ी दृश्‍य दिखा। मैं एक अबोध शिशु के रूप में दिखा। ऊंचे चट्टान पर बैठे एक नंग धड़ंग व्‍यक्ति ने मुझे गोद में ले रखा था। वह शख्‍स कोई मामूली इनसान नहीं था। इस बात का अहसास मुझे चट्टान के नीचे करबद्ध मुद्रा में खड़ी भीड़ से हुआ। मुझे नहीं मालूम जिनकी गोद में मैं था वह कौन थे। यह वह दौर था जब मैं भयंकर पीठ और कमर दर्द से परेशान था। मुझे याद है कि 6-8 माह तक मैं पेट के बल सोया, क्‍योंकि पीठ के बल सोता तो उठ नहीं पाता था और पूरी पीठ सुन्‍न हो जाया करती थी। इसी तरह करवट लेकर भी नहीं सो सकता था। दफ्तर के सहकर्मी मुझे मोटरसाइकिल पर बैठा कर धीरे-धीरे दफ्तर ले जाते और देर रात को घर छोड़ने आते थे। इस सेवाभाव और प्रेम के लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूं।
मुझे लगा जैसे यह मेरी कल्‍पना है। सुबह हो चुकी थी। इसलिए सोने की कोशिश करने लगा। मैं पेट के बल लेटा तो नींद नहीं आई। सोचा मेडिटेशन करते करते ही सो जाऊंगा। मुझे यही उचित लगा। ध्‍यान की अवस्‍था में मुझे महसूस हुआ कि वही बुजुर्ग सज्‍जन मेरी पीठ सहला रहे हैं। मेरे पैर दबा रहे हैं। मेरे सिर पर हाथ फिरा रहे हैं। उनके साथ एक और कोई युवक था जो 30-32 साल का था। वह मेरे क़रीब आने के लिए अवसर की तलाश में था, लेकिन बुजुर्ग सज्‍जन की मौजूदगी के कारण वह लाचार था। ख़ैर, काफी देर तक सज्‍जन मुझे पितृवत स्‍नेह से सुलाने का प्रयास करते रहे। फिर मुझे कब नींद आ गई, पता नहीं चला। उसके एक दो दिन बाद मुझे अहसास हुआ कि मेरा दर्द गायब है! इसमें कोई संशय नहीं कि उन्‍होंने मेरी हीलिंग की। मुझे दर्द से निजात दिलाया।
इस घटना के तीन साल हो चुके। वर्ष 2012-13 की बात है। मेरी एक मित्र को जब इस घटना का पता चला तो उन्‍होंने एक संत की तस्‍वीर मुझे ई-मेल से भेजी। मैंने तस्‍वीरें देखीं, लेकिन पहचान नहीं पाया। इस तरह कुछ माह और बीत गए।
एक दिन की बात है। मैं दफ्तर में काम कर रहा था। काम करते समय अचानक मुझे वही दृश्‍य दिखा। उसी नंग धड़ंग शख्‍स की गोद में अबोध शिशु की तरह लेटा हुआ। मुझे सहसा ख्‍़याल आया कि मेरी मित्र ने जो तस्‍वीरें भेजी थीं उसे देखना चाहिए। मैंने तत्‍काल ई-मेल पर उन तस्‍वीरों को ढूंढ़ा। देखा तो आश्‍यर्च की सीमा न रही। वही कद-काठी। वही चेहरा। वही महापुरुष। पता चला वह अक्‍कलकोट महाराज अर्थात् स्‍वामी समर्थ महाराज के नाम से जाने जाते हैं। एक अनुत्‍तरित प्रश्‍न का उत्‍तर मुझे तीन चार साल बाद मिला।
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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

शनि का घमंड टूटा

बहुत समय पहले की बात है। शनिदेव ने लम्बे समय तक भगवान शिव की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक दिन शिवजी प्रकट हुए और शनि को वरदान मांगने को कहा।
शनि बोले- ‘भगवन! ब्रह्माजी सृष्टि के रचयिता हैं, विष्णुजी पालनकर्ता और आप इन दोनों में संतुलन बनाए रखते हैं, किन्तु सृष्टि में कर्म के आधार पर दंड देने की व्यवस्था नहीं है। इसके कारण मनुष्य ही नहीं, अपितु देवता तक भी मनमानी करते हैं। अत: मुझे ऐसी शक्ति प्रदान कीजिए ताकि मैं उद्दंड लोगों को दंड दे सकूं।’
शनिदेव के विचार से शिवजी बहुत प्रभावित हुए और उन्हें दंडाधिकारी नियुक्त कर दिया। वरदान प्राप्ति के बाद शनि घूम-घूम कर ईमानदारी से कर्म के आधार पर लोगों को दंडित करने लगे। वह अच्छे कर्म पर परिणाम अच्छा और बुरे कर्म पर बुरा परिणाम देते। इस तरह समय बीतता गया। उनके प्रभाव से देवता, असुर, मनुष्य और समस्त जीवों में से कोई भी अछूता नहीं रहा। कुछ समय बाद शनि को अपनी इस शक्ति पर अहंकार हो गया। वह स्वयं को सबसे बलशाली समझने लगे।
एक बार की बात है। रावण के चंगुल से सीता को छुड़ाने के लिए वानर सेना की सहायता से जब राम ने सागर पर बांध बना लिया, तब उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्होंने हनुमान को सौंपी। हमेशा की तरह शाम को शनि भ्रमण पर निकले तो सागर सेतु पर उनकी निगाह पड़ी। उन्होंने नीचे उतर कर देखा तो पाया कि हनुमान सेतु की रखवाली की जगह ध्यानमग्न बैठे थे। यह देख कर शनि क्रोधित हो गए और हनुमान का ध्यान भंग करने की कोशिश करने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हनुमान पूर्ववत् ध्यान में डूबे रहे। इस पर शनि का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने हनुमान को बहुत भला-बुरा कहा, फिर भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। आखिर में शनि ने उन्हें युद्ध की चुनौती दी तब हनुमान विनम्रता से बोले- ‘शनिदेव! मैं अभी अपने आराध्य श्रीराम का ध्यान कर रहा हूं। कृपया मेरी शांति भंग न करें।’ लेकिन शनि अपनी चुनौती पर कायम रहे। तब हनुमान ने शनि को अपनी पूंछ में लपेट कर पत्थर पर पटकना शुरू कर दिया। शनि लहुलूहान हो गए। हनुमान उन्हें लगातार पटकते ही जा रहे थे। अब शनि को अपनी भूल का अहसास हुआ कि उन्होंने हनुमान को चुनौती देकर बहुत बड़ी गलती की। वह अपनी गलती के लिए माफी मांगने लगे, तब हनुमान ने उन्हें छोड़ दिया।
शनि के अंग-अंग में भयंकर पीड़ा हो रही थी। यह देख कर हनुमान को उन पर दया आई और उन्होंने शनि को विशेष प्रकार का तेल देते हुए कहा- ‘इस तेल को लगाने से तुम्हारी पीड़ा दूर हो जाएगी। लेकिन याद रखना, फिर कभी ऐसी गलती दोबारा मत करना।’
‘भगवन! मैं वचन देता हूं, आपके भक्तों को कभी कष्ट नहीं दूंगा’- शनि ने कहा।
उसी दिन से शनिदेव को तेल अर्पित किया जाने लगा। मान्यता है कि जो भी व्यक्ति शनि को तेल अर्पित करता है, वह उसका कल्याण करते हैं।

 (नंदन में प्रकाशित)

रविवार, 2 दिसंबर 2012

मोनू की शादी डिमांड


डेढ़ साल का हमारा मोनू एक दिन विचित्र फरमाइश कर बैठा. वैसे तो हर बात पर उसके पांच सवाल होते और हर सवाल का जवाब उसे चाहिए होता था. इस बार उसने कोई सवाल नहीं किया...बस एक छोटी सी माँग रख दी. बच्चे ने पहली बार कुछ माँगा उसे मिलना ही चाहिए...लेकिन अभी मांग सुनिए...उसने सिर्फ़ शादी कहा. मासूम था ....पूरा बोल नहीं सकता था. मामा ने समझा बच्चा कोई सजा हुआ घर देखना चाहता है... लेकिन अभी शाम के चार ही बजे थे और अँधेरा होने में कम से कम २ घंटे से अधिक का वक़्त था. फिर भी मामा उसे मोहल्ले में घुमाता रहा... उसे हर वह घर दिखता रहा...जिनमें छोटे छोटे झालर लगे हुए थे. दीवाली बीते अभी पांच ही दिन हुए होंगे. लेकिन मोनू हर बार घर की सजावट चुपचाप देख लेता और उंगली से आगे चलने का इशारा कर देता. मतलब साफ़ था... भांजे को वह नहीं मिल रहा जो उसे चाहिए. दो घंटे घूम घुमा कर मामा भांजे को लेकर एक चौराहे पर खड़ा हुआ. मोनू ने हरबार की तरह इस बार भी उंगली सामने तान दी... लेकिन मामा सोच रहा था...  इसकी फरमाइश पूरी करने के चक्कर में रात हो जाएगी. इसे सस्ते में निपटाना होगा. इसके लिए सोचना ज़रूरी था...और सोचने के लिए सिगरेट चाहिए थी. अब मामा की लाचारी यह कि इस नकलची बच्चे के सामने सिगरेट भी नहीं पी सकता... कहीं घर में इसने ऐसी नक़ल की तो सब यह सोचकर इसके पीछे ही पड़ जायेंगे कि बच्चे ने नया कुछ सीखा है...और उसी से पूछेंगे कि ...मोनू बताओ ... ऐसे कौन करता है? कोई पूछता ...मामा?...बच्चा तो शाणा था ही. उंगली उठाने में भी परहेज नहीं करता था... खैर...मामा सिगरेट कुछ इस तरह पी रहा है...
मोनू...सामने देखो- गाय .....और एक कश. मोनू ...वो देखो- डौगी... फिर एक कश. लेकिन बच्चा होनहार था... उसने ताड़ लिया कि मामा मुझे पोपट बना रहा है... अबकी बार मामा ने कहा... मोनू ...देखो -कैट. मोनू ने कैट तो देखा ही...मामा के मुह में एक सफ़ेद डंडी और उस से निकलता धुंआ भी देखा... उसने भी तुरंत नक़ल मारते हुए सुट्टा लगाया...मामा की हालत खराब! झट से सिगरेट फेंकी और बच्चे के दिमाग में अभी अभी गयी नयी सीख बाहर निकालने में जुट गया... चलो आज तुम्हे गाड़ी दिखाते हैं...  लेकिन बच्चे ने फिर वही पुराना राग अलापा... शादी. मामा ने अपने हर दोस्त से पूछा...बता कहीं कोई शादी है... सब पूछते -क्यों? मामा कहता ...भांजा आज शादी के मूड में है... मोहल्ले में हंगामा मच गया...लाडले भांजे का मामला जो था... आठ बज गए... हर कोई आता और मोनू को देख कर कहता...आज नहीं मानेगा....मोनू था कि हर अगले मिनट तकादा करता.... मम्मा ...छादी... आखिरकार रात को दस बजे दूसरे मोहल्ले से बैंड बाजे की आवाज़ आई... मोनू के कान खड़े हो गए...इधर उधर देखा और जैसे घोड़े को एड लगाते हैं....कुछ उसी अंदाज़ में शरीर को आगे धकेलते हुए आवाज़ की दिशा में ऊँगली तान दी. बरात और उसमें मस्ती में नाचते लोगों को देखकर मोनू खुश! जब बारात देख ली तब कहा- चलो...


 by Nagarjuna Singh on Wednesday, April 27, 2011 at 11:15pm


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पापा कहते थे... गंदे लोग सूअर की तरह होते हैं. उनसे उलझने का मतलब कीचड़ में उतरना. सूअर को कीचड़ बेहद प्रिय है. वह तो उसमें नहाकर आनंदित होगा...लेकिन तुम्हें उबकाई आएगी. कितना सच कहा था! आज के दौर में राजनीति से ज्यादा गंदगी और कहीं नहीं हो सकती. यहाँ आपको भ्रष्टाचार, दुराचार और यौनाचार में आकंठ डूबे छिछोरे लम्पट नेता तो मिल ही जायेंगे. हालांकि मैं यह भी कहना चाहूँगा कि राजनीति में सभी ऐसे नहीं हैं. अभी कुछ दिन पहले ही मेट्रो में मुझे एक सज्जन मिले. एक निहायत सुन्दर महिला के साथ थे. काफी देर तक मुझे घूरने के बाद मेरे पास आये और बोले- आप अप्पुजी हैं न? जक्कनपुर वाले. मेरे बारे में किसी का इतना कह देना ही काफी है...क्योंकि पूरी पत्रकारिता करियर में किसी को भी मेरा यह नाम और मेरे घर का पता नहीं चल पाया. पटना में भी बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं कहाँ रहता हूँ. कई तो बरसों से हमारे परिवार को जानते हैं...लेकिन उनमें भी कई लोग नहीं जानते कि जिस इंसान के आगे वो नतमस्तक होते हैं और जिन्हें वे अपना आदर्श मानते हैं...वो मेरे पापा थे. इसका सीधा कारण यह है कि मैंने कभी किसी को अपने बहुत करीब नहीं आने दिया.
खैर...मैंने कहा- कहिये. छूटते ही जनाब ने कहा- मुझे नहीं पहचाना! मैं वही हूँ जो आपके कोप का भाजक बन चुका है. मैंने कहा - मैं नहीं समझा. पूरा परिचय दीजिये. तो जनाब बोले- आप काफी दुबले हो गए हैं... लेकिन हमारे मन में तो आपकी वही पुरानी छवि बसी है. एक फाइटर वाली. मैं थोड़ा संभल गया- अतीत के पन्ने से अचानक एक किरदार उभर कर मेरे सामने खड़ा हो गया था और पहेलियाँ बुझा रहा था. उसके साथ वाली महिला उतने ही कौतुहल से मुझे निहार रही थी. मेट्रो में सफ़र कर रहे लोग भी माज़रा समझने की कोशिश कर रहे थे. मैंने झुंझला कर कहा- साफ़ साफ़ बताएँगे तो आगे बात करूँ...तब जनाब बोले- दरअसल बात 90 की है... कॉलेज का पहला दिन था... अगली सीट पर बैठने को लेकर... बस इतना कहते ही मुझे पूरा किस्सा याद आ गया. दरअसल, बात यह थी कि तब इस लड़के ने मुझे तमंचा दिखाकर मुझे पीछे कि सीट पर जाने को कहा था. लेकिन मैं वहीँ बैठा रहा. मेरे साथ जो लड़का था वह डर कर भाग गया. फिर इसके दोस्तों ने लात मारकर उस डायस को तोडना शुरू किया. मैं मना किया तो एक लड़का बाहर से एक ईंट ले आया और उसे हाथ से तोड़ने की कोशिश करने लगा... तो कोई हॉकी स्टिक सामने घुमाने लगा...कोई साईकिल की चेन. यह सब मुझे डराने के लिए था. मैं ईंट तोड़ने की कोशिश कर रहे लड़के के हाथ से ईंट ले लिया और ज़मीन पर रखकर एक ही झटके में हाथ से तोड़ दिया...और उसके छोटे टुकड़े को चुटकी से मसलते हुए ... उन सभी को यह एह्साह दिलाने की कोशिश की कि तुम सबका भी यही हश्र होगा.
अभी मैं अतीत भ्रमण ही कर रहा था कि जनाब ने कहा... भाई साहब! मुझे आज भी छाती में दर्द होता है...तब आपकी याद आती है. उसके बाद पूरी रामायण सुना दी. लोग यही सोचकर विस्मित थे कि मुझ जैसा निरीह सा दिखने वाला प्राणी भी इतना खतरनाक हो सकता है! अपनी धुलाई की कहानी वो बड़ी गरिमा के साथ सुना रहे थे.... मैंने मना किया कि क्यों मेरी इज्जत उतार रहे हो तो बोले- प्रभु... संकोच तो मुझे होना चाहिए कि मैं अपने मुंह से अपनी पिटाई की बात कह रहा हूँ...आपने तो मुझे पीटा था. मेरे साथ जो मित्र थे वह भी थोड़े उतावले हो रहे थे. इशारे में मयूर विहार की बजाय प्रगति मैदान ही उतरने को कह रहे थे. फिर न चाहते हुए भी मैंने पूछ लिया- (पहले मन में पूछा, लंगूर के हाथ में अंगूर उसी का है?) ये कौन हैं (महिला की ओर इशारा करते हुए). उन्होंने कहा- ये मेरी पत्नी हैं. इसके बाद वो पूछने लगे- कहाँ रहते हैं? कहाँ काम करते हैं? अब आप लिखते हैं कि नहीं?  लेकिन मैं चुप रहा. वैसे भी अब कोई पास आना चाहता है तो खुद ही दूर जाने का मन करता है. वो सज्जन तो नॉएडा गए...हम जब मयूर विहार उतरे तो मित्र ने पूछा- इसे कैसे जानते हैं? मैंने कहा- सुना नहीं... इसकी हरकत के लिए इसका कैसे भूत बनाया था. अब उस व्यक्ति के बारे में अपडेट जानकारी देने की बारी मित्र की थी. उसने कहा- बाबा... ये बहुत बड़ा दलाल है. अपनी राजनीति चमकाने के लिए ये नेताओं को लड़कियां सप्लाई  करता है. फिर कहा कि कभी एआईसीसी जियेगा...इधर उधर मंडराता दिख जायेगा. ये उसकी बीवी नहीं है... रोज़ किसी नयी लड़की के साथ मिल जायेगा...आजकल नॉएडा में एक शानदार डुप्लेक्स खरीदा है इसने. मेरे मुंह  से एक अलंकार निकला... जाने दे मा.....को.
दूसरी घटना...
लगभग ९५-९६ की बात है... उस समय इन्द्र कुमार गुजराल राज्यसभा में जाने कि जुगत में थे... लालू यादव इसमें उनकी मदद कर रहे थे या गुजराल साहब मदद माँगने के लिए पहुंचे थे...ऐसा कहने के पीछे वजह यह है कि मैं नेताओं से दूर ही रहता हूँ... मेरे कुछ परिचित लोग राजनीति के शिखर पर पहुंचे...लेकिन मैंने हमेशा उनसे दूर ही रहा. हाँ तो गुजराल साहब काफी समय तक हमारे मोहल्ले में रहे...हर रोज़ सुबह वो सुशील नाई के सैलून के बाहर टेबल पर बैठे रहते थे. मैं सुबह की  सैर के बाद लौटते समय कुछ देर उन्ही के साथ बैठ जाता था. कई दिन ऐसे ही बीते...एक दिन मैंने पूछ लिया- आप तो बड़े उद्योगपति हैं...फिर यहाँ... फिर उनके बारे में पूछा...लेकिन उन्होंने मुझे एक बच्चे से ज्यादा कुछ नहीं समझा. मैं था भी बच्चा. वो कहाँ बुज़ुर्ग...अलबत्ता वो मुझसे ही पूछते कि कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? कहाँ पढ़ते हो? एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा भी जताई कि वो मेरे पिताजी से मिलना चाहते हैं....लेकिन मैं ही नहीं ले गया. मैंने थोड़े समय में और जितनी बुद्धि थी उसके हिसाब से जितना भी मैंने उन्हें जाना...मेरे मन में उनके लिए आज भी वही सम्मान है. कई बार तो जब वो बोलते तो मुझे सुनाई ही नहीं देता था... उनका लहजा बड़ा विनम्र था... पैसे का कोई घमंड नहीं... कुछ समय बाद उनके सितारे बुलंद हुए और शायद अप्रैल १९९७ में प्रधानमन्त्री बन गए. मोहल्ले का हर शख्स अफ़सोस करता था...काश मैंने गुजराल साहब से नजदीकी बनायी होती! एक दिन भैया और माँ ने हँसते हुए कहा...तेरी पहुँच तो अब तो सीधे प्रधानमन्त्री तक हो गयी है! लेकिन मैंने हँस कर बात टाल दी....

by Nagarjuna Singh on Friday, April 29, 2011 at 12:05am