शनिवार, 14 नवंबर 2009

रानू


आज जब मैं यह उपन्यास लिख रहा हूँ इसका पात्र जीवन का 36वाँ बसंत देख रहा होगा. काफी समय तक मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि शुरू कहाँ से करूँ ? आखिरकार दस साल के बाद यह फैसला ले पाया कि कहानी कथानक के वर्तमान से शुरू कर फ्लैश बैक में ले जाने से बेहतर होगा कि इसे कथानक के बचपन से ही आरम्भ किया जाए.इसके दो फायदे हैं - एक तो कथानक पात्र परिचय से बचेगा, दूसरा चरणबद्ध तरीके से कहानी भी आगे बढ़ती रहेगी. स्थान परिवर्तन, परिवेश और परवरिश का बच्चे पर पूरा-पूरा असर पड़ता है.. इन तमाम चीज़ों से न सिर्फ़ उसके भविष्य का निर्धारण होता है. बल्कि उसके वर्तमान पर भी ये गहरी छाप छोड़ती हैं.....
             बात 1979 -80 की है. जयप्रकाश नारायण के छात्र आन्दोलन की आग पूरी तरह बुझी नहीं थी. राख के नीचे आग अभी भी सुलग रही थी जो रह रह कर धधक उठती थी. गाहे-बजाहे छात्रों का हुजूम अपनी मांगें मनवाने के लिए सड़कों पर उतर आता था. सड़कों पर टायर, गाड़ियाँ या लकड़ियों के ढेर जलते रहते थे. फिर पुलिस की गाड़ियाँ दनदनाती मौके पर पहुंचती और देखते-देखते सड़क पूरी तरह छावनी में बदल जाती. बीडी इवनिंग कॉलेज के छात्र निर्भीकता से पुलिस के सामने डटे रहते और अपनी मांगों के समर्थन में नारेबाजी करते रहते. एकदम से माहौल गरमा जाता, फिर माइक पर पुलिस वालों की आवाज़ गूंजती "हम आखिरी बार चेतावनी देते हैं, कक्षाओं में लौट जाइये. नहीं तो हमें बल प्रयोग करना पड़ेगा." इसके बाद अबतक जो छात्र पुलिस के सामने सीना ताने खड़े थे ..अब उनकी पीठ पुलिसिया लट्ठ को अपने ऊपर बरसने का आमंत्रण दे रही थी.लड़के भाग रहे हैं और पुलिस खदेड़-खदेड़ कर उन्हें पीट रही है...कुछ घंटे बाद फिर लड़कों का हुजूम दुगने जोश से सड़कों पर आ जाता ...जैसे कुछ देर पहले कुछ हुआ ही नहीं हो.पुलिस की जीप में रेडियो लगा हुआ है, लेकिन उसपर विविध भारती या कोई दूसरा स्टेशन नहीं पकड़ता....खरखराती हुई सी आवाज आती है बस. यह वायरलेस था जिसपर लगातार सन्देश प्रेषित हो रहे हैं.
      रानू की उम्र तब 7-8 की रही होगी. पटना के यारपुर मोहल्ले में घर के पीछे एक कॉलेज था भुवनेश्वरी दयाल (बीडी इवनिंग) कॉलेज.अभी भी है, लेकिन अब इसकी पुरानी इमारत के अलावा दो और इमारतें भी बन गयीं हैं. अब यहाँ शाम की कक्षाएं नहीं लगतीं.पठन-पाठन का काम दिन में ही होता है.
वायरलेस पर एक पुलिस अफसर कुछ बोल रहा है और दूसरी ओर से भी कुछ आवाजें आ रही हैं. शायद दूसरी ओर से कोई इजाज़त मिल गयी है लगता है. पुलिस कप्तान कुछ पुलिसवालों को हिदायत देकर जीप मोड़ लेता है और पीछे जाकर रेलवे फाटक पर खड़ा हो जाता है...शायद अपने अधिकारियों से अकेले में बात करने के लिए वह पीछे गया है. पाच मिनट के बाद लौटता है और फिर उन अफसरों को बुलाता है.कुछ पुलिसवालों के पास जो रायफल है वह अभी के जैसा नहीं है.उसकी नली  का छेद थोड़ा बड़ा है.अफसर जोर से चिल्लाते हैं ..."सभी अपनी-अपनी पोजीशन ले लो." आदेश का तुंरत पालन होता है. सभी पुलिसवाले घुटनों के बल बैठकर सामने प्रदर्शनकारी क्षात्रों पर निशाना साधने लगते हैं. माइक पर फिर वही चिर-परिचित आवाज़ गूंजती है "हम आखिरी बार चेतावनी देते हैं, कक्षाओं में लौट जाइये. नहीं तो हमें बल प्रयोग करना पड़ेगा."...लेकिन प्रदर्शनकारियों पर कोई फ़र्क  नहीं पडा. वे आगे बढ़ने लगते हैं...आखिरी चेतावनी गूंजती है और ...रायफल से दनादन गोलियाँ  बरसने लगती हैं कहर बनकर. भगदड़ मची है...जिसे जहां जगह मिल रही है...घुसता जा रहा है. पुलिसिया दमनचक्र चरम पर है. सड़कों पर कहीं कापियां बिखरी हैं तो कहीं जूते-चप्पल. जलती टायर के पास एक लड़का लहू-लुहान तड़प रहा है. टांगों से खून की धारा बह रही है...रानू ये सब अपने घर के बरामदे से देख रहा है. मुट्ठियाँ भींच गयीं हैं ...सांस तेज़ चल रही है. मन में पुलिस वालों के खिलाफ आक्रोश है...नफ़रत है. मारे गुस्से के वह फुंफकार रहा है...किसी किसी कोबरे की मानिंद. जिसे गोली लगी है वह उसे पहचानता है. क्या समझाने से वे नहीं मानते जो गोली मार दी...देखो तो ज़रा! वह हिल भी नहीं रहा है...शायद पीठ में भी गोली लगी है. शायद वह मर चुका था. कुछ लड़कों को जीप में डालकर पुलिस घुमा रही है...गर्दनीबाग कि ओर ले जाते हुए कोई उन्हें रायफल के बट से मार रहा है तो कोई बूट से...अरे कोई है!..इन जालिमों को रोको...
अचानक माँ देखती है कि दरवाजा खुला हुआ. रानू बाहर बरामदे में खड़ा वीभत्स नज़ारा देख रहा है. माँ डांटते हुए उसे अन्दर ले जाती है...फिर प्यार से कहती है...कहीं गोली लग गयी तो! देखता नहीं कैसे आँखें बंद करके कहर बरपा रहे हैं...सड़क से काफी दूर सेंट्रल बैंक के पास एक आदमी अपने बरामदे में खड़ा था... उसे भी गोली मार दी जालिमों ने. जिन घरों में ये लड़के पनाह लेते हैं, पुलिस उन्हें भी पीटती है.जल्लाद कहीं के....बाहर मत जाना. रानू के मन में कई सवाल कौंध रहे थे...आखिर पुलिस ने गोलियाँ क्यों चलाई ? क्या बिना इसके काम नहीं चलता ? जान लेना ज़रूरी था ? उनका क्या कसूर था? उनकी बात कोई सुनता क्यों नहीं ? पता नहीं सुबह-सुबह घर से खाकर भी आये थे कि नहीं ? ...लेकिन इन सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं था.