रविवार, 2 दिसंबर 2012

मोनू की शादी डिमांड


डेढ़ साल का हमारा मोनू एक दिन विचित्र फरमाइश कर बैठा. वैसे तो हर बात पर उसके पांच सवाल होते और हर सवाल का जवाब उसे चाहिए होता था. इस बार उसने कोई सवाल नहीं किया...बस एक छोटी सी माँग रख दी. बच्चे ने पहली बार कुछ माँगा उसे मिलना ही चाहिए...लेकिन अभी मांग सुनिए...उसने सिर्फ़ शादी कहा. मासूम था ....पूरा बोल नहीं सकता था. मामा ने समझा बच्चा कोई सजा हुआ घर देखना चाहता है... लेकिन अभी शाम के चार ही बजे थे और अँधेरा होने में कम से कम २ घंटे से अधिक का वक़्त था. फिर भी मामा उसे मोहल्ले में घुमाता रहा... उसे हर वह घर दिखता रहा...जिनमें छोटे छोटे झालर लगे हुए थे. दीवाली बीते अभी पांच ही दिन हुए होंगे. लेकिन मोनू हर बार घर की सजावट चुपचाप देख लेता और उंगली से आगे चलने का इशारा कर देता. मतलब साफ़ था... भांजे को वह नहीं मिल रहा जो उसे चाहिए. दो घंटे घूम घुमा कर मामा भांजे को लेकर एक चौराहे पर खड़ा हुआ. मोनू ने हरबार की तरह इस बार भी उंगली सामने तान दी... लेकिन मामा सोच रहा था...  इसकी फरमाइश पूरी करने के चक्कर में रात हो जाएगी. इसे सस्ते में निपटाना होगा. इसके लिए सोचना ज़रूरी था...और सोचने के लिए सिगरेट चाहिए थी. अब मामा की लाचारी यह कि इस नकलची बच्चे के सामने सिगरेट भी नहीं पी सकता... कहीं घर में इसने ऐसी नक़ल की तो सब यह सोचकर इसके पीछे ही पड़ जायेंगे कि बच्चे ने नया कुछ सीखा है...और उसी से पूछेंगे कि ...मोनू बताओ ... ऐसे कौन करता है? कोई पूछता ...मामा?...बच्चा तो शाणा था ही. उंगली उठाने में भी परहेज नहीं करता था... खैर...मामा सिगरेट कुछ इस तरह पी रहा है...
मोनू...सामने देखो- गाय .....और एक कश. मोनू ...वो देखो- डौगी... फिर एक कश. लेकिन बच्चा होनहार था... उसने ताड़ लिया कि मामा मुझे पोपट बना रहा है... अबकी बार मामा ने कहा... मोनू ...देखो -कैट. मोनू ने कैट तो देखा ही...मामा के मुह में एक सफ़ेद डंडी और उस से निकलता धुंआ भी देखा... उसने भी तुरंत नक़ल मारते हुए सुट्टा लगाया...मामा की हालत खराब! झट से सिगरेट फेंकी और बच्चे के दिमाग में अभी अभी गयी नयी सीख बाहर निकालने में जुट गया... चलो आज तुम्हे गाड़ी दिखाते हैं...  लेकिन बच्चे ने फिर वही पुराना राग अलापा... शादी. मामा ने अपने हर दोस्त से पूछा...बता कहीं कोई शादी है... सब पूछते -क्यों? मामा कहता ...भांजा आज शादी के मूड में है... मोहल्ले में हंगामा मच गया...लाडले भांजे का मामला जो था... आठ बज गए... हर कोई आता और मोनू को देख कर कहता...आज नहीं मानेगा....मोनू था कि हर अगले मिनट तकादा करता.... मम्मा ...छादी... आखिरकार रात को दस बजे दूसरे मोहल्ले से बैंड बाजे की आवाज़ आई... मोनू के कान खड़े हो गए...इधर उधर देखा और जैसे घोड़े को एड लगाते हैं....कुछ उसी अंदाज़ में शरीर को आगे धकेलते हुए आवाज़ की दिशा में ऊँगली तान दी. बरात और उसमें मस्ती में नाचते लोगों को देखकर मोनू खुश! जब बारात देख ली तब कहा- चलो...


 by Nagarjuna Singh on Wednesday, April 27, 2011 at 11:15pm


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पापा कहते थे... गंदे लोग सूअर की तरह होते हैं. उनसे उलझने का मतलब कीचड़ में उतरना. सूअर को कीचड़ बेहद प्रिय है. वह तो उसमें नहाकर आनंदित होगा...लेकिन तुम्हें उबकाई आएगी. कितना सच कहा था! आज के दौर में राजनीति से ज्यादा गंदगी और कहीं नहीं हो सकती. यहाँ आपको भ्रष्टाचार, दुराचार और यौनाचार में आकंठ डूबे छिछोरे लम्पट नेता तो मिल ही जायेंगे. हालांकि मैं यह भी कहना चाहूँगा कि राजनीति में सभी ऐसे नहीं हैं. अभी कुछ दिन पहले ही मेट्रो में मुझे एक सज्जन मिले. एक निहायत सुन्दर महिला के साथ थे. काफी देर तक मुझे घूरने के बाद मेरे पास आये और बोले- आप अप्पुजी हैं न? जक्कनपुर वाले. मेरे बारे में किसी का इतना कह देना ही काफी है...क्योंकि पूरी पत्रकारिता करियर में किसी को भी मेरा यह नाम और मेरे घर का पता नहीं चल पाया. पटना में भी बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं कहाँ रहता हूँ. कई तो बरसों से हमारे परिवार को जानते हैं...लेकिन उनमें भी कई लोग नहीं जानते कि जिस इंसान के आगे वो नतमस्तक होते हैं और जिन्हें वे अपना आदर्श मानते हैं...वो मेरे पापा थे. इसका सीधा कारण यह है कि मैंने कभी किसी को अपने बहुत करीब नहीं आने दिया.
खैर...मैंने कहा- कहिये. छूटते ही जनाब ने कहा- मुझे नहीं पहचाना! मैं वही हूँ जो आपके कोप का भाजक बन चुका है. मैंने कहा - मैं नहीं समझा. पूरा परिचय दीजिये. तो जनाब बोले- आप काफी दुबले हो गए हैं... लेकिन हमारे मन में तो आपकी वही पुरानी छवि बसी है. एक फाइटर वाली. मैं थोड़ा संभल गया- अतीत के पन्ने से अचानक एक किरदार उभर कर मेरे सामने खड़ा हो गया था और पहेलियाँ बुझा रहा था. उसके साथ वाली महिला उतने ही कौतुहल से मुझे निहार रही थी. मेट्रो में सफ़र कर रहे लोग भी माज़रा समझने की कोशिश कर रहे थे. मैंने झुंझला कर कहा- साफ़ साफ़ बताएँगे तो आगे बात करूँ...तब जनाब बोले- दरअसल बात 90 की है... कॉलेज का पहला दिन था... अगली सीट पर बैठने को लेकर... बस इतना कहते ही मुझे पूरा किस्सा याद आ गया. दरअसल, बात यह थी कि तब इस लड़के ने मुझे तमंचा दिखाकर मुझे पीछे कि सीट पर जाने को कहा था. लेकिन मैं वहीँ बैठा रहा. मेरे साथ जो लड़का था वह डर कर भाग गया. फिर इसके दोस्तों ने लात मारकर उस डायस को तोडना शुरू किया. मैं मना किया तो एक लड़का बाहर से एक ईंट ले आया और उसे हाथ से तोड़ने की कोशिश करने लगा... तो कोई हॉकी स्टिक सामने घुमाने लगा...कोई साईकिल की चेन. यह सब मुझे डराने के लिए था. मैं ईंट तोड़ने की कोशिश कर रहे लड़के के हाथ से ईंट ले लिया और ज़मीन पर रखकर एक ही झटके में हाथ से तोड़ दिया...और उसके छोटे टुकड़े को चुटकी से मसलते हुए ... उन सभी को यह एह्साह दिलाने की कोशिश की कि तुम सबका भी यही हश्र होगा.
अभी मैं अतीत भ्रमण ही कर रहा था कि जनाब ने कहा... भाई साहब! मुझे आज भी छाती में दर्द होता है...तब आपकी याद आती है. उसके बाद पूरी रामायण सुना दी. लोग यही सोचकर विस्मित थे कि मुझ जैसा निरीह सा दिखने वाला प्राणी भी इतना खतरनाक हो सकता है! अपनी धुलाई की कहानी वो बड़ी गरिमा के साथ सुना रहे थे.... मैंने मना किया कि क्यों मेरी इज्जत उतार रहे हो तो बोले- प्रभु... संकोच तो मुझे होना चाहिए कि मैं अपने मुंह से अपनी पिटाई की बात कह रहा हूँ...आपने तो मुझे पीटा था. मेरे साथ जो मित्र थे वह भी थोड़े उतावले हो रहे थे. इशारे में मयूर विहार की बजाय प्रगति मैदान ही उतरने को कह रहे थे. फिर न चाहते हुए भी मैंने पूछ लिया- (पहले मन में पूछा, लंगूर के हाथ में अंगूर उसी का है?) ये कौन हैं (महिला की ओर इशारा करते हुए). उन्होंने कहा- ये मेरी पत्नी हैं. इसके बाद वो पूछने लगे- कहाँ रहते हैं? कहाँ काम करते हैं? अब आप लिखते हैं कि नहीं?  लेकिन मैं चुप रहा. वैसे भी अब कोई पास आना चाहता है तो खुद ही दूर जाने का मन करता है. वो सज्जन तो नॉएडा गए...हम जब मयूर विहार उतरे तो मित्र ने पूछा- इसे कैसे जानते हैं? मैंने कहा- सुना नहीं... इसकी हरकत के लिए इसका कैसे भूत बनाया था. अब उस व्यक्ति के बारे में अपडेट जानकारी देने की बारी मित्र की थी. उसने कहा- बाबा... ये बहुत बड़ा दलाल है. अपनी राजनीति चमकाने के लिए ये नेताओं को लड़कियां सप्लाई  करता है. फिर कहा कि कभी एआईसीसी जियेगा...इधर उधर मंडराता दिख जायेगा. ये उसकी बीवी नहीं है... रोज़ किसी नयी लड़की के साथ मिल जायेगा...आजकल नॉएडा में एक शानदार डुप्लेक्स खरीदा है इसने. मेरे मुंह  से एक अलंकार निकला... जाने दे मा.....को.
दूसरी घटना...
लगभग ९५-९६ की बात है... उस समय इन्द्र कुमार गुजराल राज्यसभा में जाने कि जुगत में थे... लालू यादव इसमें उनकी मदद कर रहे थे या गुजराल साहब मदद माँगने के लिए पहुंचे थे...ऐसा कहने के पीछे वजह यह है कि मैं नेताओं से दूर ही रहता हूँ... मेरे कुछ परिचित लोग राजनीति के शिखर पर पहुंचे...लेकिन मैंने हमेशा उनसे दूर ही रहा. हाँ तो गुजराल साहब काफी समय तक हमारे मोहल्ले में रहे...हर रोज़ सुबह वो सुशील नाई के सैलून के बाहर टेबल पर बैठे रहते थे. मैं सुबह की  सैर के बाद लौटते समय कुछ देर उन्ही के साथ बैठ जाता था. कई दिन ऐसे ही बीते...एक दिन मैंने पूछ लिया- आप तो बड़े उद्योगपति हैं...फिर यहाँ... फिर उनके बारे में पूछा...लेकिन उन्होंने मुझे एक बच्चे से ज्यादा कुछ नहीं समझा. मैं था भी बच्चा. वो कहाँ बुज़ुर्ग...अलबत्ता वो मुझसे ही पूछते कि कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? कहाँ पढ़ते हो? एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा भी जताई कि वो मेरे पिताजी से मिलना चाहते हैं....लेकिन मैं ही नहीं ले गया. मैंने थोड़े समय में और जितनी बुद्धि थी उसके हिसाब से जितना भी मैंने उन्हें जाना...मेरे मन में उनके लिए आज भी वही सम्मान है. कई बार तो जब वो बोलते तो मुझे सुनाई ही नहीं देता था... उनका लहजा बड़ा विनम्र था... पैसे का कोई घमंड नहीं... कुछ समय बाद उनके सितारे बुलंद हुए और शायद अप्रैल १९९७ में प्रधानमन्त्री बन गए. मोहल्ले का हर शख्स अफ़सोस करता था...काश मैंने गुजराल साहब से नजदीकी बनायी होती! एक दिन भैया और माँ ने हँसते हुए कहा...तेरी पहुँच तो अब तो सीधे प्रधानमन्त्री तक हो गयी है! लेकिन मैंने हँस कर बात टाल दी....

by Nagarjuna Singh on Friday, April 29, 2011 at 12:05am

निश्चय

कमरे में बैठा रानू छत को अपलक निहार रहा है. मन में सवालों के बाढ़ उमड़ घुमड़ रहे हैं. कई रातों से सोया नहीं था फिर भी उसे नींद नहीं आ रही थी. दो दिन से कुछ खाया भी नहीं... खाना बना कर सोचा था कि खायेगा, लेकिन अब भूख भी नहीं थी. मोबाइल हाथ में लिए उसे उछाल रहा है...अचानक घंटी बजती है...बजती ही रहती है.. कई बार बजने के बाद मोबाइल मूक बन गया था...थोड़ी देर बाद फिर जब मोबाइल की घंटी बजने लगी तो उसने उठाकर देखा. माँ का फोन था. उसने बात कर लेना ही मुनासिब समझा. माँ से बात करने के बाद वह और शिथिल हो गया. शायद उनकी तबियत ठीक नहीं थी. थोड़ी देर बाद बिस्तर से उठा और बाहर सिगरेट पीने बैठ गया.
रानू के हालात ठीक नहीं थे. जिंदगी का हर क़दम पर वह अब तक जिस शाइस्तागी से वह सामना करता आया था ...उसमें अब वह बात नहीं दिख रही. संघर्ष करते करते वह थक गया है. एक बेचैनी, अकुलाहट, असंतोष और विद्वेष उसके मन में पल रहा है. जिंदगी अज़ाब हो गयी है. अब वह जीना नहीं चाहता... जिए भी तो किस के लिए? माँ-बाप, भाई-बहन, प्रेमिका, दोस्त सब तो पहले ही छूट गए थे ...और अब नौकरी भी छूट गयी है. कई दिनों से उसके मन में एक उथल पुथल मची है... वह जिंदगी से ऊब गया है...इस निर्मम संसार में अब उसका दम घुटता है... परेशानियां इतनी बढ़ गयी हैं कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही हैं. हालात ने उसे तोड़ दिया है....अब उसे जिंदगी नीरस और बोझ जैसी लगती है. वह मरना चाहता है...लेकिन यहाँ भी एक सवाल पीछे पड़ा है.... अगर ख़ुदकुशी की तो बीमा का पैसा उसकी बीमार माँ को नहीं मिलेगा. फिर झुंझला कर सिगरेट फेंक देता है और सड़क की ओर चल देता है... वह सोच रहा है...कैसी है यह ज़िन्दगी...? न जी सकता है...और न ही मर सकता है. इसी उधेड़बुन में रानू पार्क तक पहुंचा.सुबह होने तक घास पर लेटा रहा. रात फिर आँखों में बीत गयी...दिन निकल आया. लोग पार्क में सुबह की सैर के लिए आने शुरू हो गए थे. रानू उठा और बाहर निकल कर सड़क पर आ गया. सड़क पार करने के लिए अपने दायीं ओर देख ही था की कहीं से तेज़ आवाज़ आई. देखा तो  बायीं ओर सड़क के उस पार एक कार ने साइकिल वाले को टक्कर मार दी थी. लेकिन उसने यह जानने की कोशिश नहीं की कि साइकिल वाले को कितनी चोट लगी? जिंदा भी है या मर गया? सीधा अपने घर की ओर चलता रहा. अचानक उसके मन में ख़याल आया....अगर मेरा भी एक्सीडेंट हो जाये तो!!!!! हाँ...ऐसा हो जाये तो उसकी माँ को उसके मरने के बाद बीमा का पैसा भी मिल जायेगा...वह वापस पलटा ..लेकिन दो क़दम चलने के बाद रुक गया. फिर एक सवाल ... अगर एक बार माँ को देख लेता तो मन में यह मलाल तो नहीं रहता की माँ को देखा नहीं. फिर वह घर की ओर चल पड़ा. कमरे में बैठा घंटों सोचता रहा... किसी बड़ी गाड़ी के अचानक आगे जाकर मरना ठीक रहेगा. कार और छोटी गाड़ियों से टकराने पर क्या पता मरुँ न मरुँ... अगर हाथ पैर ही टूटा तो बिस्तर पर पड़ा रहूँगा... अगर कोई अंग खराब हो गया तो जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाऊंगा. फिर उसने सोचा... वैसे ट्रेन के आगे जान देना सबसे आसान है... मरने की पूरी गारंटी होती है. लेकिन मरने के बाद भी अगर कोई पहचान नहीं पाया तो .... माँ को बीमा का पैसा कैसे मिलेगा???? हाँ ... सात लाख... बीमा कंपनी वाले माँ से मेरे मरने का सबूत मांगेंगे तो वह बेचारी कहाँ से लाएगी सबूत?
उसने अब ठान लिया है कि अब वह किसी बाईपास पर बस या ट्रक के आगे कूद कर अपनी जान दे देगा. फिर एलआईसी प्रीमियम का रसीद देखने लगा.... उसमें लिखी तारीख पर नज़र पड़ते ही अचानक उसे याद आया कि अप्रैल में ही उसे बीमा का प्रीमियम जमा करना था. मतलब मरने से पहले उसे प्रीमियम जमा करना ही होगा. ११ बज चुके थे... रानू तैयार होकर बिना खाए पिए बीमा की किस्त जमा करने के लिए निकल पड़ा. उसे दो काम करने हैं- पहले ए टी एम से पैसे निकाल कर उसे एल आई सी ऑफिस में प्रीमियम जमा करना है... फिर वहाँ से टिकट कटाने जाना है. दुनिया से जाने का टिकट माँ से मिलने के बाद कटाएगा... लेकिन मरेगा ज़रूर...उसने पक्का निश्चय कर लिया है...

by Nagarjuna Singh on Wednesday, May 4, 2011 at 11:44pm ·

सवालों से डरता हूँ

आज मैंने आसमान को देखा. यह पहले जैसा नहीं है. मेरा आकाश विस्तृत था जिसमें मोतियों सरीखे तारे जगमगाते थे. मैं बैठना चाहा, लेकिन ज़मीन नहीं मिली. यहाँ से तो कंक्रीट की गगनचुम्बी इमारतें ही दिखती हैं. मेरे हिस्से की ज़मीन कहाँ गयी? कहाँ गयी मेरी छत जिसमें लटकते तारों को गिनकर सो जाया करता था? तब न जाने कितने तारे गिन लेता था...अब तो इन इमारतों की मंजिलें भी नहीं गिन पाता. इस शहर की भीडभाड़ में मैं अपने हिस्से की नींद, धैर्य, भावनाएं और अब संवेदनाएं भी खो चुका हूँ. बंद कोठरी में छत से लटकती मकड़ी की कुछ जालें एहसास कराती हैं कि इन्हें महीनों से नहीं हटाया. रोज़ सोचता हूँ आज इन्हें साफ़ करूँगा ...लेकिन रोज़ किसी उलझन में उलझ कर रह जाता हूँ. जैसे कोई पतंगा मकड़ी की जाल में फंस कर छटपटा कर दम तोड़ देता है... मैं भी चाहकर निकल नहीं पाता हूँ. यहाँ हर क़दम पर प्रपंच है...छल है... फरेब है...यहाँ हर हाथ में खंजर घोंपने को तैयार है ... कह नहीं सकते किस आँख को कैसी तलाश है. यहाँ इंसान से पहले इंसानियत मर जाती है... मैं भी बदल गया हूँ अब मेरी संवेदनाएं फिर भी जीवित हैं.. या कहें बचा रखी हैं...पता नहीं किस रोज़ माँ पूछ बैठे तेरी आँखों का पानी क्यों सूख रहा है? और न जाने ऐसे कितने ही सवाल जिसके जवाब नहीं है मेरे पास... डरता हूँ तो बस सवालों से... न जाने कौन कब कोई सवाल मेरी ओर उछाल दे.

by Nagarjuna Singh on Monday, April 25, 2011 at 11:53pm

गुरुवार, 31 मई 2012

दरोगा जी का न्‍याय

दारोगा का न्याय

धनिया रजक पगलाया हुआ बदहवासी में भागा जा रहा है। लगता है जैसे उसके पिछवाड़े में किसी ने चटाई बम लटका दिया हो। लल्लन पासी पीछे से आवाज देता रहा, लेकिन धनिया सुने तब तो। बाबू साहेब की सामने वाली गली से रेलवे लाईन की तरफ भागा जा रहा है। छोटका ईसरी महतो के घर के पीछे गोली (कंचा) खेल रहा था। बाप को भागता देख कर वहीं से चिल्लाता हुआ घर की ओर दौड़ा, ‘मैया, देखो... बाबू कहां जा रहा है?’
धनिया की पत्नी सुखनी शायद चूल्हा-चौकी में जुती हुई थी। छोटका भागता हुआ सीधे रसोई में उसके पास गया और बोला, ‘मैया... मैया...’
छोटका बात पूरी भी नहीं कर पाया कि सुखनी नन्हीं सी जान पर फट पड़ी। बोली, ‘क्या है रे! ... आगे भी बोलेगा करमजले।’
‘मैया, बाबू लाईन की तरफ गया। पीछे-पीछे लल्लन चच्चा भी। कितना बुलाया... लेकिन बाबू नहीं रूका।’- छोटका एक सांस में बोल गया।
सुखनी- ‘क्या बकता है रे (विस्मित और संशय भरी निगाह से देखते हुए)। ई पगलेट हमको चैन से न तो जीने देगा और न ही मरने देगा। इतना तो समझा लिया कि बैसाख नंदन अब न लौटेगा।... जब था तब तो उसे चैन से रहने न दिया। अब पगलाया फिरता है। (छोटका को देखते हुए) तनिक जा के देख... मुनिरका जादव खटाल* में है क्या। ... मिले तो कहना मैंने बुलाया है। रोड पर तमाशा मत देखने लगना। जल्दी से साथ ले के आना। अब भाग के जा... ’
बेटे को मुनिरका यादव को बुलाने भेज कर सुखनी माथा पर हाथ रखकर चौखट पर ही बैठ कर सोच में डूबती चली गई।
पिछले साल अगहन की बात है। छोटका के बाबू बैसाख नंदन के साथ गंगा घाट पर कपड़ा धोने गए थे। मरदाना खुद तो कपड़े धोने लगा और बैसाखी को धूप में छोड़ दिया। सुबह बेचारे को कुछ खाने भी नहीं दिया। अगर खा कर गया होता तो मालिक को छोड़ कर ऐसे थोड़े न भाग जाता कहीं। कितनी बार कहा, अजी! कभी स्नेह से बैसाखी के देह पर हाथ भी फिरा दिया करो। बेचारा तुम्हारे साथ दिनभर देह धुन कर काम करता है। उसे ढंग से खाने दिया करो। ...पता नहीं कहां, किस हाल में होगा बेचारा! आधा साल गुजर गया, तब से छोटका के बाबू उसकी खोज में पता नहीं कहां-कहां मारे-मारे फिर रहे हैं। क्षण का चैन नहीं इस मरद को। बैसाखी क्या गया, काम-धंधा सब चौपट हो गया। ग्राहक कपड़े दे जाता है, लेकिन धोए कौन! मैं चौकी-चूल्हा करूं, बच्चे सम्भालूं कि घाट पर कपड़े धोने जाऊं। यह सब सोचते-सोचते सुखनी दिन-ब-दिन घर के बिगड़ते अर्थशास्त्र में उलझती चली गई। घर में आटा-चावल खत्म है। खाने के लाले पड़ रहे हैं। बनिया भी उधार देने से साफ मना करने लगा है। कहता है पिछला हिसाब चुकता करो। तीन महीना हो गया, बकाया दिया नहीं और मुंह उठा कर राशन लेने आ गए। सुखनी की आंखों से दो बूंद आंसू गाल पर ढरक गए। ... लेकिन पेट थोड़े न मानता है... इसे तो दोनों समय खाना चाहिए, नहीं तो मरोड़ उठता है। दो दिन पहले छोटका आठ आने का फुलौना** खरीदने के लिए जोड़-पगहा*** तुड़ा रहा था। पूरा एक घंटा लोट-लोट कर रोता रहा। ... आखिर में मार खा के सोया। अब बच्चा क्या जाने घर की हालत कैसी है? भला हो पुनपुन वाली का, जो आधा दर्जन केला दे गई थी। एक सांझ केले की तरकारी तो बन जाती है... दूसरे बेला छिलके का चोखा... नहीं तो नून रोटी पर भी अब आफत है। छुटकी के लिए आधा लीटर दूध आता था। पिछले महीने ही बंद हो गया। दूध वाले का भी दो महीने का हिसाब है। अब छाती में दूध भी नहीं उतरता.... बेचारी छुटकी। थोड़ा दूध पीती है बाकि पेट तो पानी से ही भरता है उसका। आजकल बिस्तर भी गीला करने लग गई है।
सोचते-सोचते सुखनी फफक कर रोने लगी। थोड़ी देर रोती रही, फिर आंसू पोछे और बेचैनी में उठकर बाहर निकली और गली से ही सड़क की ओर झांका, लेकिन न तो छोटका दिखा और न ही मुनिरका जादव। मन ही मन छोटका को आधा दर्जन गालियाँ दीं . एक बार तो उसका मन किया कि खुद ही मुनिरका को बुलाने जाए, किन्तु एक तो लोक लाज, ऊपर से छुटकी भी सो रही थी। इधर वह गई नहीं छोटकी टें टें करने लगेगी।
‘नामुराद कहां मर गया? आता क्यों नहीं? जरूर मुनिरका गाय दूहने लगा होगा। ...कहीं छोटका खेलने तो नहीं लग गया रास्ते में....। पता नहीं क्या हो रहा होगा उधर।... और इसका बाप पता नहीं क्या कर रहा होगा।’ फिर आसमान की ओर देखते हुए भुनभुनाई- ‘हे भगवान! मुझे मौत क्यों नहीं आती?’ ...और पैर पटकते हुए जाकर फिर चौखट पर बैठ गई। रह-रह कर सुखनी के मन में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। एक मन कहता सब ठीक होगा, लेकिन अगले ही पल अंतर्मन से आवाज आती... भगवान भी तो गरीबों के साथ ही खेल करता है। अगर ऐसा न होता तो बैसाखी थोड़े ही न कहीं जाता। पुलिस में भी तो रपट लिखवाने गए थे छोटका के बाबू... लेकिन क्या हुआ? गरीबों की सुनता कौन है? मुंआ दरोगा कहता है- फोटो लाए हो? सभी गधे तो एक जैसे दिखते हैं। हम कैसे पहचानेंगे कि अमुक गधा तुम्हारा ही है? क्या नाम था गधे का? हुलिया बताओ। कहां-कहां जा सकता है? वैसे भी बिना फोटो के हम रिपोर्ट नहीं लिखते हैं। जाओ उसकी कोई निशानी ले आओ, जिससे उसकी पहचान हो सके।
शाम ढल चुकी है। अंधेरा तिर आया है। सुखनी घर में झांकती है। सामने ही दीवार पर पुरानी घड़ी टंगी है। दोनों सुइयां छह पर एक पर एक चढ़ी हुई हैं। मालूम नहीं कितना बजा है। कई बार छोटका के बाबू ने उसे घड़ी देखना सिखाने की कोशिश की, लेकिन वह हर बार यही कह कर टाल जाती थी कि हमें इसकी क्या जरूरत है जी। आपको देखना आता है न, एतना ही काफी है। सुखनी बाहर निकल कर आसमान निहारती है। अभी हल्का उजियारा है, लेकिन कुछ देर में ही अंधेरा छा जाएगा और दीया-बाती का समय हो जाएगा। फिर जैसे आश्वस्त  होने के लिए सामने वाले ऊंची इमारत पर निगाह फेंकती है। यह देखकर कि बाहर का बल्ब नहीं जला है, वह सड़क की ओर झांकती है।
‘ई हरामखोर छोटका कहां मर गया? आता क्यों नहीं है? मुनिरका को भी जैसे गाय दूहने की जल्दी पड़ी थी। अगर तनिक देर के लिए आ जाता तो गइया दूध देने से मना कर देती क्या? एतना भी नहीं सोचा कि बच्चे को बुलाने भेजा है तो जरूर कोई जरूरी काम ही होगा।’- सोच में डूबी सुखनी की नजर तभी सामने से आते छेदी चौधरी के बेटे पर पड़ी।
सुखनी- ‘बउआ जी... तनिक ईहां आइयेगा।’
हां, चाची। का बात है? कोनो काम है का? सवाल पर सवाल दागता छेदी का बेटा उसके पास पहुंचा।
सुखनी- ‘रोडे पर न जा रहे हैं.... हमरा एगो काम नहीं कीजिएगा?’
छेदी का बेटा- ‘हां चाची... जा त ओन्हीं रहे हैं। कोनो काम है त कहिए। कुच्छो लाना है का?’
सुखनी- ‘छोटका के खटाल में भेजे थे... मुनिरका जादव को बुलाने के लिए। घंटा बीत गया, लेकिन दुन्नो में से केकरो पता नहीं है। आप जा ही रहे हैं त मुनिरका को हमारा समाद**** कह दीजिएगा। आउर छोटका केन्हुं दिखाई दे ते दू लप्पड़ मार के घरे भेज दीजिएगा। मुंआ कोनो काम का नहीं है। माटी में लोट रहा होगा कहीं।’
ठीक है चाची...।- बोल कर छेदी का बेटा चला गया।
अब पूरा अंधेरा घिर चला है। अंदर से छुटकी की रोने की आवाज भी आने लगी थी। महतारी***** को घर में नहीं पा कर टेंटियाती बाहर ही आ रही थी। सुखनी ने उसे गोद में उठा लिया और घर में बढ़ गई। बेटी को कमर पर टिकाए सांझी-बाती दिखाने के लिए हाथ-पैर धोने लगी। छुटकी दूध के लिए टेंटिया रही थी, लेकिन सुर अभी तक नीचे का ही लगा रही थी। महतारी ने एक-दो बार उसे धमका दिया है। समझाते हुए बेटी से कहती है, सांझी-बाती दिखा लेने दे, फिर दूध पिला दूंगी, लेकिन छुटकी नहीं मानी। टें टें करती रही तो सुखनी ने एक झापड़ गाल पर रसीद करते हुए बेटी को बिस्तर पर लगभग पटक दिया। बेचारी बाप को याद कर के रोती रही। अभी उसका सुर पहले की तरह नहीं, बल्कि आठवें सुर के करीब था। देवी-देवता को सांझी-बाती दिखा के सुखनी अभी छुटकी को दूध पिलाने बैठी ही थी कि अचानक छोटका जेट विमान की तरह भागता हुआ कमरे में आया।
छोटका- मैया... चच्चा आ गए।
सुखनी- कहां मर गया था मुंए। एतना देर हो गया... जहां जाता है वहीं सट जाता है।
इतने में मुनिरका भी आ गया। बाहर से ही बोलता अंदर आया- ई में छोटका के कोई गलती नहीं है भौजी। ई बेचारा त कहिए रहा था कि चच्चा जल्दी चलो, मैया बुला रही है। हमही सोचे कि गइया दूह लें, फिर चलते हैं।... अब बताया जाए। कौनो जरूरी काम है का?
सुखनी- देखिए न ... छोटका कह रहा था कि उसके बाबू लाईन की तरफ गए हैं। बैसाखी के फेर में एन्ने-ओन्ने मारल-मारल फिर रहे हैं। केतना बार त समझा लिए कि अब का फायदा? जे होना था से हुआ। एगो साइकिल खरीद लीजिए... लेकिन ई ... करमजला मरद केकरो बात सुने तब न। कहीं कुच्छो उल्टा-पुल्टा कर लिए त हम ई दूगो बच्चा ले के कहां मरेंगे?
मुनिरका- काहे रे छोटका? ई बात हमको काहे नहीं कहा? .... (फिर सुखनी की ओर मुखातिब होते हुए)... आप चिंता न करो भौजी। ... हम अबहिएं धनीराम भैया को देखते हैं। हम ले के आ रहे हैं। आप तनिको मत घबराइएगा।
आश्वासन देकर मुनिरका उल्टे पांव लाईन की ओर भागा। लेकिन थोड़ी दूर ही गया था कि रास्ते में धनिया मिल गया। उसे देखते ही मुनिरका बिफर गया। बोला- बाल-बच्चा और मेहरारू****** को छोड़ के कहां मारे-मारे फिर रहे हो भाई?
धनिया- का कहैं भैया... किसी ने कहा कि रेलवे लाईन के किनारे उसने बैसाखी को देखा था। उसे ही देखने चला गया था।
मुनिरका- त का हुआ? मिला कि नहीं?
धनिया- नहीं.... स्साले ने ठिठोली की थी। चिड़ई के जान जाए, लइकन के खिलौना...
मुनिरका - भौजी ठीक ही कहती है। एगो साइकिल काहे नहीं ले लेते? कब तक गदहे का मातम मनाओगे? छह महीना बीत गया... अब का मिलेगा... घण्टा...
धनिया- हमरा मन कहता है कि बैसाखी एक न एक दिन जरूर मिलेगा। तीन कोना छान मारे हैं, अब  पुरवारी टोला बाकी है। सोचते हैं कि बिहान एक बार दानापुर की ओर देख लें। (ठंडी आह भरते हुए) मन में मलाल तो नहीं रहेगा कि उसे उस तरफ नहीं खोजा। हमको लगता है कि उ उधरे ही कहीं मिलेगा।
मुनिरका- फिर वही पागलपन। हम का बोले...? अगर मिलना होता तो मिल गया होता। अब खोजबीन छोड़ो और काम धंधा पर ध्यान दो। ग्राहक किसी का नहीं होता है। एक बार छोड़कर चला गया तो दोबारा उस ग्राहक को पाना बहुत मुश्किल होता है।  ... बेचारी भौजी को देखा है ... चेहरा कैसा कुम्हला गया है। लगता है जैसे रोगी है।
धनिया- बस भैया, तुम्हरी कसम... बिहान भर खोजेंगे ... न मिला तो समझ लेंगे कि ...बात पूरी नहीं कर पाया धनिया। सामने रुआंसी सुखनी छुटकी को कमर पर टांगे दरवाजे पर खड़ी थी। थोड़ा सम्भलते हुए धनिया ने कहा- का भागवान.... घबरा काहे जाती हो? कौनो ट्रेन से कटने थोड़े गए थे। फिर छुटकी को अपनी गोद में ले लिया और दुलारते हुए कमरे में चला गया। खुशामदी लहजे में पत्नी से बोला- मुनिरका को चाह-पानी तो पिलाओ। (छुटकी को बिस्तर पर रखते हुए मुनिरका से कहा) आओ भाई ... बैठो। तुम्हरे बहाने हमको भी चाह मिल जाएगा।
लेकिन सुखनी तो जैसे पूरी तरह लड़ाई के मूड में थी। घर में क्या है, क्या खतम हो गया, ये तो पूछा नहीं, ऊपर से चाय बनाने का ऑर्डर दे दिया। जैसे घर में सामान खरीद कर रख दिया हो। एक सांझ का आटा बचा है। तरकारी भी नहीं है कई दिन से। केले की तरकारी और छिलके का चोखा खा-खा कर मन बिगड़ गया है। कानी आंख भी उस पर नजर फेरने का मन नहीं करता है। कल सांझ के बाद ये भी खत्म हो जाएगा। चावल खत्म हुए आज छठा दिन है, लेकिन यहां हाकिम को सूझता थोड़े है। हमरा त करम उसी दिन फूट गया जिस दिन मां-बाप ने इसके पल्ले बांध दिया। फिर भी जैसे रखता है हम रह लेते हैं, लेकिन बच्चों का क्या होगा? इन्हें अकेला छोड़कर तो मर भी नहीं सकती। अगर मुनिरका यादव नहीं रहता तो आज फैसला हो जाता। फिर भी सुखनी ने चुप रहना ही मुनासिब समझा। मुनिरका चाय पीकर चला गया तो छोटका दुलार करवाने के लिए बाप की गोद में घुसने लगा। धनिया देर तक बच्चों के साथ खेलता रहा। सुखनी खाना पका चुकी तो चुपचाप खाने की थाली बिस्तर पर रख कर बाप की छाती पर बैठी छुटकी को उठाया ओर छोटका को कान से खींचते हुए भीतर वाले कमरे में ले गई। दोनों बच्चे टेंटियाने लगे तो सुखनी ने उन्हें धुन दिया। बेचारे बच्चे रोते-रोते सो गए। इधर, धनिया भुनभुनाता रहा। फिर खाना खाकर खटिया पर पसर गया। लेकिन बच्चों को सुलाकर सुखनी खुद जाग रही थी। आंखों के पोरों से आंसू ढरक कर दोनों ओर तकिए पर गिर रहे थे। खाना भी नहीं खाया उसने।
अगले दिन सुबह-सवेरे ही सुखिया दानापुर के लिए निकल गया। दोपहर बाद पसीने में तरबतर घर लौटा और चहकते हुए पत्नी से कहा- मैं न कहता था सुखी... एक न एक दिन हमारा बैसाखी जरूर मिलेगा हमें। ...(गर्व से छाती में हवा भरते हुए) आखिर खोज लिए न।
सुखनी- सच्चो! अपना बैसाखी मिल गया!!!??? (सुखनी के चहरे पर ख़ुशी और विस्मय के मिले-जुले भाव उभर आए। सिर पर आंचल करते हुए धरफराती हुई बाहर निकली। दाएं बाएं देखा, लेकिन जब कोई नहीं दिखाई दिया तो भागकर अंदर आई और जिज्ञासावश पति से पूछी)- कहां है जी हमारा बैसाखी? बाहर त नहीं है। साथ में नहीं लाए हैं का? कहां छोड़ आए उसे?
‘भागवान! धीरज धरो... बैसाखी दानापुर में है किसी के पास। हम त उसको ले ही आते, ... लेकिन जिसके घर के देहरी पर वह बंधा था, उसका घरवाला नहीं था। उसकी लुगाई कहती है कि बैसाखी उसका है। उसका घरवाला सोनपुर मेला से खरीद के लाया है। ... जैसे हम अपना बच्चा के पहचानवे नहीं करते हैं। अरे... छह महीना का था तब से उसे पाला है। बात करती है .... उसका कैसे हो जाएगा? ... बैसाखी घर का रस्ता का भटक गया ... कम्बख्त ने उसे दरवाजे पर बांध लिया, जैसे उसका कोई माई-बाप नहीं है। धरती-पाताल एक कर दिए ... लेकिन बैसाखी को खोज ही लिए। सुखी उ अपना बैसाखी ही है। अब त दरोगा का सहारा है। थाना जा रहे हैं हम। दरोगा को कहेंगे कि तुम फोटो के लिए बैठे रहो, ... हमने अपना बैसाखी खोज भी लिया। अब उसे हमें दिलवा दे।’
धनिया थाने पहुंचा। कुर्सी पर बैठकर दारोगा दोनों टांगें टेबुल पर रखे चाय की चुस्की ले रहा था। सुखिया अंदर पहुंचा तो दोनों पैर फैलाए दारोगा ने जूतों के बीच से उसे घूरकर देखा। बोला- का बात है बे? गदहे फोटो ले आया का?
धनिया- हजूर, हमने त बैसाखी को खोज भी लिया। दानापुर के अनूप टोला में है। अब तो उसे हमें दिला दीजिए दरोगा जी। बड़ी मेहरबानी होगी। बड़ी परेसानी के दौर से गुजरे हैं। पूरा छह महीना उसके लिए जाने कहां-कहां भटके ... तब जाकर मिला।
दारोगा - ठीक है ...चाय की चुस्की लेते हुए ... कल देखेंगे। आज गर्मी दिमाग में चढ़ गया है। कपार में दरद है। सबेरे आना फैसला कर देंगे।
दारोगा का आश्वासन पाकर धनिया मारे ख़ुशी के फूले नहीं समा रहा है। उसकी ख़ुशी का कोई पारावार नहीं है। धनिया घर लौटा तो रोज की तरह मातम नहीं, बल्कि उत्सव सा माहौल था। बच्चे भी रो नहीं रहे थे। पत्नी द्वार पर टकटकी लगाए बैठी उसके आगमन की बाट जोह रही थी। खाना खाकर पति-पत्नी देर तक बतियाते रहे। धनिया बिस्तर पर गिरा, लेकिन सो नहीं सका। रात करवटों में ही बीती। यही हाल सुखनी का भी था। दोनों बेसब्री से सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। धनिया सोचता रहा- ‘बैसाखी काफी दुबला हो गया है। बेचारे को खाना बिना सुखा दिया है। मन तो करता है कि अभी जा के उसे खूब दुलार करूं। मेरा बच्चा! कितने दुख सहे होंगे। मैं भी तो उसे बिना वजह मारता-पीटता था। ... आखिर मेरा बच्चा है ... दुलार भी तो करता था।’ फिर पता नहीं कब सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। सुबह पत्नी ने जगाया तो धरफरा कर उठा और कुल्ला कर के गमछा कंधे पर रखा और थाने की ओर कूच कर गया। सुखनी कुछ कहती, तब तक वह गली पार कर चुका था।
सात बजे हैं। धनिया थाने में हाजिर है। मुंशी से पूछा- दरोगा जी नहीं दिखाई दे रहे हैं।
मुंशी - पगला गया है का? एतना सबेरे-सबेरे आ गया। जानता नहीं दरोगा जी देर रात को घर जाते हैं। चौबीसो घंटे क्या तुम्हीं लोगों की सेवा में लगे रहेंगे? अपना घर-दुआर उनका जैसे है ही नहीं। ... जा बाहर जा के बैठ। नौ बजे के बाद आएंगे दरोगा जी।
जी सरकार- कहकर धनिया बाहर गली की ओर मुंह करके बैठ गया।
नौ बजे जब दारोगा आया तो धनिया उसके पीछे-पीछे अंदर आया। हाथ जोड़ कर बोलो- सरकार ... न्याय किया जाए ...
दारोगा ने हाथ से उससे दम धरने का इशारा किया। बेल्‍ट ढीली कर कमीज बाहर निकालते हुए कुर्सी पर बैठा और दोनों टांगें टेबल पर फेंक दी। फिर बोला- हां, भई... अब बक। कहां क्‍या देखा? कैसे पता चला कि उ तुम्‍हारा ही गदहा है।
धनिया- सरकार... उ हमरा बच्‍चा है। छह महीना का था तब से उसे पाला-पोसा है। अपने बच्‍चे को कइसे नहीं पहचानेंगे।
दारोगा- हुं.... फिर से सोच ले। पक्‍का गदहा तुम्‍हारा ही है?
धनिया- सरकार ....सौ फीसद
दारोगा- ठीक है। अब ताे कुछ करना ही पड़ेगा। फिर एक सिपाही को बुलाया - रामसरूप ... जरा इसके साथ अनूप टोला जाकर गदहे के साथ उसके मौजूदा मालिक को थाने ले आओ। ऐ धनिया तू भी साथ में जा। ...
दोनों रवाना हो गए।
दोपहर दो बजे तीनों गदहे के साथ थाने पहुंचे। धनिया बैसाखी से लिपट कर बोला- मालिक अब हम इसे अपने साथ ले जाएं?
दारोगा- काहे रे! एक मिनट में तुम्हरा मिरगी छोड़ा देंगे। स्साले चुपचाप खड़ा रह। नहीं त उल्टा लटका कर तशरीफ़ पर इतना बजाएंगे कि सोते-जागते सरगम गाएगा।
फिर दोनों की ओर मुखातिब होकर बोला- हां तो धनिया, तू कहता है कि ई गदहा तेरा है। अब गदहे के मालिक से भी तो पूछ लें कि वो क्या कहता है। (अनूप टोले वाले को ताड़ते हुए) - क्यों बे ... ई गदहा किसका है?
माई-बाप हमरा है ... (धनिया को देखते हुए) और किसका होगा। छह महीना पहले सोनपुर मेला से इसको खरीद के लाए थे। पूरा 2,000 रुपया दिए हैं।
धनिया- सरकार, ई मेरा बैसाखी है। ... झूठ बोलता है ई आदमी।
गधे के दो-दो दावेदार देख कर दारोगा बड़ी मुश्किल में फंस गया। कोई मानने को तैयार नहीं था कि गदहा उसका नहीं है। फिर कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा- देखो भाई, हम जो न्याय करेंगे, वह अंतिम होगा। दोनों पक्ष को फैसला मानना पड़ेगा। बोलो मंजूर है।
दोनों हाथ जोड़ कर बोले- अब तो सरकार आपके न्याय का ही आसरा है।
दारोगा- तो ठीक है ... इस गदहे को खुला छोड़ दो। (एक सिपाही से)- ऐ एक लाठी मार गदहे को। इसके बाद ई जिसके घर जाएगा, गदहा उसी का माना जाएगा।
लट्ठ पड़ते ही गदहा ढेंचू-ढेंचू कर के भागा। दारोगा, दो सिपाही और गदहे के दोनों दावेदार उसके पीछे-पीछे। भागता हुआ गदहा सीधे धनिया के घर पहुंच कर रुका।
दारोगा बोला- फैसला हो गया। ये गदहा धनिया का ही है। क्यों धनिया ... खुश है न?
जी हुकुम- धनिया ने तो जैसे पूरा संसार जीत लिया था। दारोगा जी का फैसला सुनकर धनिया, उसकी पत्नी और छोटका की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। खुशी इस बात से दोहरी हो रही थी कि बैसाखी आज पूरे तीन साल का हो गया था। सुखनी भागकर अंदर गई और थाली में रोटी, रोली, दीया जला कर ले आई। पूरे विधि से बैसाखी की आरती उतारी और लोटे से उसके आगे पानी गिराया और रोटी उसे खिलाई। छोटका बैसाखी की पीठ पकड़ कर उछल-कूद कर रहा था तो बाप ने उसे पीठ पर बैठा दिया। छुटकी सामने बैठी बैसाखी को खाते निहार रही थी। धनिया प्यार से उसके सिर पर हाथ फिरा रहा था और सुखनी बैसाखी को प्यार से रोटी खिला रही थी।

शब्दार्थ
१. खटाल- गाय, भैंस के लिए बना शेड
२. फुलौना- गुब्बारा
३. जोर-पगहा तुडाना - जिद करना
४. समाद- सन्देश
५. महतारी- माँ
६. मेहरारू- पत्नी
७. पुरवारी- पूरब की ओर
८. बिहान- कल (आनेवाला)
९. देहरी- घर का प्रवेश द्वार 




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