रविवार, 2 दिसंबर 2012

सवालों से डरता हूँ

आज मैंने आसमान को देखा. यह पहले जैसा नहीं है. मेरा आकाश विस्तृत था जिसमें मोतियों सरीखे तारे जगमगाते थे. मैं बैठना चाहा, लेकिन ज़मीन नहीं मिली. यहाँ से तो कंक्रीट की गगनचुम्बी इमारतें ही दिखती हैं. मेरे हिस्से की ज़मीन कहाँ गयी? कहाँ गयी मेरी छत जिसमें लटकते तारों को गिनकर सो जाया करता था? तब न जाने कितने तारे गिन लेता था...अब तो इन इमारतों की मंजिलें भी नहीं गिन पाता. इस शहर की भीडभाड़ में मैं अपने हिस्से की नींद, धैर्य, भावनाएं और अब संवेदनाएं भी खो चुका हूँ. बंद कोठरी में छत से लटकती मकड़ी की कुछ जालें एहसास कराती हैं कि इन्हें महीनों से नहीं हटाया. रोज़ सोचता हूँ आज इन्हें साफ़ करूँगा ...लेकिन रोज़ किसी उलझन में उलझ कर रह जाता हूँ. जैसे कोई पतंगा मकड़ी की जाल में फंस कर छटपटा कर दम तोड़ देता है... मैं भी चाहकर निकल नहीं पाता हूँ. यहाँ हर क़दम पर प्रपंच है...छल है... फरेब है...यहाँ हर हाथ में खंजर घोंपने को तैयार है ... कह नहीं सकते किस आँख को कैसी तलाश है. यहाँ इंसान से पहले इंसानियत मर जाती है... मैं भी बदल गया हूँ अब मेरी संवेदनाएं फिर भी जीवित हैं.. या कहें बचा रखी हैं...पता नहीं किस रोज़ माँ पूछ बैठे तेरी आँखों का पानी क्यों सूख रहा है? और न जाने ऐसे कितने ही सवाल जिसके जवाब नहीं है मेरे पास... डरता हूँ तो बस सवालों से... न जाने कौन कब कोई सवाल मेरी ओर उछाल दे.

by Nagarjuna Singh on Monday, April 25, 2011 at 11:53pm

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