रविवार, 2 दिसंबर 2012

निश्चय

कमरे में बैठा रानू छत को अपलक निहार रहा है. मन में सवालों के बाढ़ उमड़ घुमड़ रहे हैं. कई रातों से सोया नहीं था फिर भी उसे नींद नहीं आ रही थी. दो दिन से कुछ खाया भी नहीं... खाना बना कर सोचा था कि खायेगा, लेकिन अब भूख भी नहीं थी. मोबाइल हाथ में लिए उसे उछाल रहा है...अचानक घंटी बजती है...बजती ही रहती है.. कई बार बजने के बाद मोबाइल मूक बन गया था...थोड़ी देर बाद फिर जब मोबाइल की घंटी बजने लगी तो उसने उठाकर देखा. माँ का फोन था. उसने बात कर लेना ही मुनासिब समझा. माँ से बात करने के बाद वह और शिथिल हो गया. शायद उनकी तबियत ठीक नहीं थी. थोड़ी देर बाद बिस्तर से उठा और बाहर सिगरेट पीने बैठ गया.
रानू के हालात ठीक नहीं थे. जिंदगी का हर क़दम पर वह अब तक जिस शाइस्तागी से वह सामना करता आया था ...उसमें अब वह बात नहीं दिख रही. संघर्ष करते करते वह थक गया है. एक बेचैनी, अकुलाहट, असंतोष और विद्वेष उसके मन में पल रहा है. जिंदगी अज़ाब हो गयी है. अब वह जीना नहीं चाहता... जिए भी तो किस के लिए? माँ-बाप, भाई-बहन, प्रेमिका, दोस्त सब तो पहले ही छूट गए थे ...और अब नौकरी भी छूट गयी है. कई दिनों से उसके मन में एक उथल पुथल मची है... वह जिंदगी से ऊब गया है...इस निर्मम संसार में अब उसका दम घुटता है... परेशानियां इतनी बढ़ गयी हैं कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही हैं. हालात ने उसे तोड़ दिया है....अब उसे जिंदगी नीरस और बोझ जैसी लगती है. वह मरना चाहता है...लेकिन यहाँ भी एक सवाल पीछे पड़ा है.... अगर ख़ुदकुशी की तो बीमा का पैसा उसकी बीमार माँ को नहीं मिलेगा. फिर झुंझला कर सिगरेट फेंक देता है और सड़क की ओर चल देता है... वह सोच रहा है...कैसी है यह ज़िन्दगी...? न जी सकता है...और न ही मर सकता है. इसी उधेड़बुन में रानू पार्क तक पहुंचा.सुबह होने तक घास पर लेटा रहा. रात फिर आँखों में बीत गयी...दिन निकल आया. लोग पार्क में सुबह की सैर के लिए आने शुरू हो गए थे. रानू उठा और बाहर निकल कर सड़क पर आ गया. सड़क पार करने के लिए अपने दायीं ओर देख ही था की कहीं से तेज़ आवाज़ आई. देखा तो  बायीं ओर सड़क के उस पार एक कार ने साइकिल वाले को टक्कर मार दी थी. लेकिन उसने यह जानने की कोशिश नहीं की कि साइकिल वाले को कितनी चोट लगी? जिंदा भी है या मर गया? सीधा अपने घर की ओर चलता रहा. अचानक उसके मन में ख़याल आया....अगर मेरा भी एक्सीडेंट हो जाये तो!!!!! हाँ...ऐसा हो जाये तो उसकी माँ को उसके मरने के बाद बीमा का पैसा भी मिल जायेगा...वह वापस पलटा ..लेकिन दो क़दम चलने के बाद रुक गया. फिर एक सवाल ... अगर एक बार माँ को देख लेता तो मन में यह मलाल तो नहीं रहता की माँ को देखा नहीं. फिर वह घर की ओर चल पड़ा. कमरे में बैठा घंटों सोचता रहा... किसी बड़ी गाड़ी के अचानक आगे जाकर मरना ठीक रहेगा. कार और छोटी गाड़ियों से टकराने पर क्या पता मरुँ न मरुँ... अगर हाथ पैर ही टूटा तो बिस्तर पर पड़ा रहूँगा... अगर कोई अंग खराब हो गया तो जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाऊंगा. फिर उसने सोचा... वैसे ट्रेन के आगे जान देना सबसे आसान है... मरने की पूरी गारंटी होती है. लेकिन मरने के बाद भी अगर कोई पहचान नहीं पाया तो .... माँ को बीमा का पैसा कैसे मिलेगा???? हाँ ... सात लाख... बीमा कंपनी वाले माँ से मेरे मरने का सबूत मांगेंगे तो वह बेचारी कहाँ से लाएगी सबूत?
उसने अब ठान लिया है कि अब वह किसी बाईपास पर बस या ट्रक के आगे कूद कर अपनी जान दे देगा. फिर एलआईसी प्रीमियम का रसीद देखने लगा.... उसमें लिखी तारीख पर नज़र पड़ते ही अचानक उसे याद आया कि अप्रैल में ही उसे बीमा का प्रीमियम जमा करना था. मतलब मरने से पहले उसे प्रीमियम जमा करना ही होगा. ११ बज चुके थे... रानू तैयार होकर बिना खाए पिए बीमा की किस्त जमा करने के लिए निकल पड़ा. उसे दो काम करने हैं- पहले ए टी एम से पैसे निकाल कर उसे एल आई सी ऑफिस में प्रीमियम जमा करना है... फिर वहाँ से टिकट कटाने जाना है. दुनिया से जाने का टिकट माँ से मिलने के बाद कटाएगा... लेकिन मरेगा ज़रूर...उसने पक्का निश्चय कर लिया है...

by Nagarjuna Singh on Wednesday, May 4, 2011 at 11:44pm ·

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें