गुरुवार, 31 मई 2012

दरोगा जी का न्‍याय

दारोगा का न्याय

धनिया रजक पगलाया हुआ बदहवासी में भागा जा रहा है। लगता है जैसे उसके पिछवाड़े में किसी ने चटाई बम लटका दिया हो। लल्लन पासी पीछे से आवाज देता रहा, लेकिन धनिया सुने तब तो। बाबू साहेब की सामने वाली गली से रेलवे लाईन की तरफ भागा जा रहा है। छोटका ईसरी महतो के घर के पीछे गोली (कंचा) खेल रहा था। बाप को भागता देख कर वहीं से चिल्लाता हुआ घर की ओर दौड़ा, ‘मैया, देखो... बाबू कहां जा रहा है?’
धनिया की पत्नी सुखनी शायद चूल्हा-चौकी में जुती हुई थी। छोटका भागता हुआ सीधे रसोई में उसके पास गया और बोला, ‘मैया... मैया...’
छोटका बात पूरी भी नहीं कर पाया कि सुखनी नन्हीं सी जान पर फट पड़ी। बोली, ‘क्या है रे! ... आगे भी बोलेगा करमजले।’
‘मैया, बाबू लाईन की तरफ गया। पीछे-पीछे लल्लन चच्चा भी। कितना बुलाया... लेकिन बाबू नहीं रूका।’- छोटका एक सांस में बोल गया।
सुखनी- ‘क्या बकता है रे (विस्मित और संशय भरी निगाह से देखते हुए)। ई पगलेट हमको चैन से न तो जीने देगा और न ही मरने देगा। इतना तो समझा लिया कि बैसाख नंदन अब न लौटेगा।... जब था तब तो उसे चैन से रहने न दिया। अब पगलाया फिरता है। (छोटका को देखते हुए) तनिक जा के देख... मुनिरका जादव खटाल* में है क्या। ... मिले तो कहना मैंने बुलाया है। रोड पर तमाशा मत देखने लगना। जल्दी से साथ ले के आना। अब भाग के जा... ’
बेटे को मुनिरका यादव को बुलाने भेज कर सुखनी माथा पर हाथ रखकर चौखट पर ही बैठ कर सोच में डूबती चली गई।
पिछले साल अगहन की बात है। छोटका के बाबू बैसाख नंदन के साथ गंगा घाट पर कपड़ा धोने गए थे। मरदाना खुद तो कपड़े धोने लगा और बैसाखी को धूप में छोड़ दिया। सुबह बेचारे को कुछ खाने भी नहीं दिया। अगर खा कर गया होता तो मालिक को छोड़ कर ऐसे थोड़े न भाग जाता कहीं। कितनी बार कहा, अजी! कभी स्नेह से बैसाखी के देह पर हाथ भी फिरा दिया करो। बेचारा तुम्हारे साथ दिनभर देह धुन कर काम करता है। उसे ढंग से खाने दिया करो। ...पता नहीं कहां, किस हाल में होगा बेचारा! आधा साल गुजर गया, तब से छोटका के बाबू उसकी खोज में पता नहीं कहां-कहां मारे-मारे फिर रहे हैं। क्षण का चैन नहीं इस मरद को। बैसाखी क्या गया, काम-धंधा सब चौपट हो गया। ग्राहक कपड़े दे जाता है, लेकिन धोए कौन! मैं चौकी-चूल्हा करूं, बच्चे सम्भालूं कि घाट पर कपड़े धोने जाऊं। यह सब सोचते-सोचते सुखनी दिन-ब-दिन घर के बिगड़ते अर्थशास्त्र में उलझती चली गई। घर में आटा-चावल खत्म है। खाने के लाले पड़ रहे हैं। बनिया भी उधार देने से साफ मना करने लगा है। कहता है पिछला हिसाब चुकता करो। तीन महीना हो गया, बकाया दिया नहीं और मुंह उठा कर राशन लेने आ गए। सुखनी की आंखों से दो बूंद आंसू गाल पर ढरक गए। ... लेकिन पेट थोड़े न मानता है... इसे तो दोनों समय खाना चाहिए, नहीं तो मरोड़ उठता है। दो दिन पहले छोटका आठ आने का फुलौना** खरीदने के लिए जोड़-पगहा*** तुड़ा रहा था। पूरा एक घंटा लोट-लोट कर रोता रहा। ... आखिर में मार खा के सोया। अब बच्चा क्या जाने घर की हालत कैसी है? भला हो पुनपुन वाली का, जो आधा दर्जन केला दे गई थी। एक सांझ केले की तरकारी तो बन जाती है... दूसरे बेला छिलके का चोखा... नहीं तो नून रोटी पर भी अब आफत है। छुटकी के लिए आधा लीटर दूध आता था। पिछले महीने ही बंद हो गया। दूध वाले का भी दो महीने का हिसाब है। अब छाती में दूध भी नहीं उतरता.... बेचारी छुटकी। थोड़ा दूध पीती है बाकि पेट तो पानी से ही भरता है उसका। आजकल बिस्तर भी गीला करने लग गई है।
सोचते-सोचते सुखनी फफक कर रोने लगी। थोड़ी देर रोती रही, फिर आंसू पोछे और बेचैनी में उठकर बाहर निकली और गली से ही सड़क की ओर झांका, लेकिन न तो छोटका दिखा और न ही मुनिरका जादव। मन ही मन छोटका को आधा दर्जन गालियाँ दीं . एक बार तो उसका मन किया कि खुद ही मुनिरका को बुलाने जाए, किन्तु एक तो लोक लाज, ऊपर से छुटकी भी सो रही थी। इधर वह गई नहीं छोटकी टें टें करने लगेगी।
‘नामुराद कहां मर गया? आता क्यों नहीं? जरूर मुनिरका गाय दूहने लगा होगा। ...कहीं छोटका खेलने तो नहीं लग गया रास्ते में....। पता नहीं क्या हो रहा होगा उधर।... और इसका बाप पता नहीं क्या कर रहा होगा।’ फिर आसमान की ओर देखते हुए भुनभुनाई- ‘हे भगवान! मुझे मौत क्यों नहीं आती?’ ...और पैर पटकते हुए जाकर फिर चौखट पर बैठ गई। रह-रह कर सुखनी के मन में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। एक मन कहता सब ठीक होगा, लेकिन अगले ही पल अंतर्मन से आवाज आती... भगवान भी तो गरीबों के साथ ही खेल करता है। अगर ऐसा न होता तो बैसाखी थोड़े ही न कहीं जाता। पुलिस में भी तो रपट लिखवाने गए थे छोटका के बाबू... लेकिन क्या हुआ? गरीबों की सुनता कौन है? मुंआ दरोगा कहता है- फोटो लाए हो? सभी गधे तो एक जैसे दिखते हैं। हम कैसे पहचानेंगे कि अमुक गधा तुम्हारा ही है? क्या नाम था गधे का? हुलिया बताओ। कहां-कहां जा सकता है? वैसे भी बिना फोटो के हम रिपोर्ट नहीं लिखते हैं। जाओ उसकी कोई निशानी ले आओ, जिससे उसकी पहचान हो सके।
शाम ढल चुकी है। अंधेरा तिर आया है। सुखनी घर में झांकती है। सामने ही दीवार पर पुरानी घड़ी टंगी है। दोनों सुइयां छह पर एक पर एक चढ़ी हुई हैं। मालूम नहीं कितना बजा है। कई बार छोटका के बाबू ने उसे घड़ी देखना सिखाने की कोशिश की, लेकिन वह हर बार यही कह कर टाल जाती थी कि हमें इसकी क्या जरूरत है जी। आपको देखना आता है न, एतना ही काफी है। सुखनी बाहर निकल कर आसमान निहारती है। अभी हल्का उजियारा है, लेकिन कुछ देर में ही अंधेरा छा जाएगा और दीया-बाती का समय हो जाएगा। फिर जैसे आश्वस्त  होने के लिए सामने वाले ऊंची इमारत पर निगाह फेंकती है। यह देखकर कि बाहर का बल्ब नहीं जला है, वह सड़क की ओर झांकती है।
‘ई हरामखोर छोटका कहां मर गया? आता क्यों नहीं है? मुनिरका को भी जैसे गाय दूहने की जल्दी पड़ी थी। अगर तनिक देर के लिए आ जाता तो गइया दूध देने से मना कर देती क्या? एतना भी नहीं सोचा कि बच्चे को बुलाने भेजा है तो जरूर कोई जरूरी काम ही होगा।’- सोच में डूबी सुखनी की नजर तभी सामने से आते छेदी चौधरी के बेटे पर पड़ी।
सुखनी- ‘बउआ जी... तनिक ईहां आइयेगा।’
हां, चाची। का बात है? कोनो काम है का? सवाल पर सवाल दागता छेदी का बेटा उसके पास पहुंचा।
सुखनी- ‘रोडे पर न जा रहे हैं.... हमरा एगो काम नहीं कीजिएगा?’
छेदी का बेटा- ‘हां चाची... जा त ओन्हीं रहे हैं। कोनो काम है त कहिए। कुच्छो लाना है का?’
सुखनी- ‘छोटका के खटाल में भेजे थे... मुनिरका जादव को बुलाने के लिए। घंटा बीत गया, लेकिन दुन्नो में से केकरो पता नहीं है। आप जा ही रहे हैं त मुनिरका को हमारा समाद**** कह दीजिएगा। आउर छोटका केन्हुं दिखाई दे ते दू लप्पड़ मार के घरे भेज दीजिएगा। मुंआ कोनो काम का नहीं है। माटी में लोट रहा होगा कहीं।’
ठीक है चाची...।- बोल कर छेदी का बेटा चला गया।
अब पूरा अंधेरा घिर चला है। अंदर से छुटकी की रोने की आवाज भी आने लगी थी। महतारी***** को घर में नहीं पा कर टेंटियाती बाहर ही आ रही थी। सुखनी ने उसे गोद में उठा लिया और घर में बढ़ गई। बेटी को कमर पर टिकाए सांझी-बाती दिखाने के लिए हाथ-पैर धोने लगी। छुटकी दूध के लिए टेंटिया रही थी, लेकिन सुर अभी तक नीचे का ही लगा रही थी। महतारी ने एक-दो बार उसे धमका दिया है। समझाते हुए बेटी से कहती है, सांझी-बाती दिखा लेने दे, फिर दूध पिला दूंगी, लेकिन छुटकी नहीं मानी। टें टें करती रही तो सुखनी ने एक झापड़ गाल पर रसीद करते हुए बेटी को बिस्तर पर लगभग पटक दिया। बेचारी बाप को याद कर के रोती रही। अभी उसका सुर पहले की तरह नहीं, बल्कि आठवें सुर के करीब था। देवी-देवता को सांझी-बाती दिखा के सुखनी अभी छुटकी को दूध पिलाने बैठी ही थी कि अचानक छोटका जेट विमान की तरह भागता हुआ कमरे में आया।
छोटका- मैया... चच्चा आ गए।
सुखनी- कहां मर गया था मुंए। एतना देर हो गया... जहां जाता है वहीं सट जाता है।
इतने में मुनिरका भी आ गया। बाहर से ही बोलता अंदर आया- ई में छोटका के कोई गलती नहीं है भौजी। ई बेचारा त कहिए रहा था कि चच्चा जल्दी चलो, मैया बुला रही है। हमही सोचे कि गइया दूह लें, फिर चलते हैं।... अब बताया जाए। कौनो जरूरी काम है का?
सुखनी- देखिए न ... छोटका कह रहा था कि उसके बाबू लाईन की तरफ गए हैं। बैसाखी के फेर में एन्ने-ओन्ने मारल-मारल फिर रहे हैं। केतना बार त समझा लिए कि अब का फायदा? जे होना था से हुआ। एगो साइकिल खरीद लीजिए... लेकिन ई ... करमजला मरद केकरो बात सुने तब न। कहीं कुच्छो उल्टा-पुल्टा कर लिए त हम ई दूगो बच्चा ले के कहां मरेंगे?
मुनिरका- काहे रे छोटका? ई बात हमको काहे नहीं कहा? .... (फिर सुखनी की ओर मुखातिब होते हुए)... आप चिंता न करो भौजी। ... हम अबहिएं धनीराम भैया को देखते हैं। हम ले के आ रहे हैं। आप तनिको मत घबराइएगा।
आश्वासन देकर मुनिरका उल्टे पांव लाईन की ओर भागा। लेकिन थोड़ी दूर ही गया था कि रास्ते में धनिया मिल गया। उसे देखते ही मुनिरका बिफर गया। बोला- बाल-बच्चा और मेहरारू****** को छोड़ के कहां मारे-मारे फिर रहे हो भाई?
धनिया- का कहैं भैया... किसी ने कहा कि रेलवे लाईन के किनारे उसने बैसाखी को देखा था। उसे ही देखने चला गया था।
मुनिरका- त का हुआ? मिला कि नहीं?
धनिया- नहीं.... स्साले ने ठिठोली की थी। चिड़ई के जान जाए, लइकन के खिलौना...
मुनिरका - भौजी ठीक ही कहती है। एगो साइकिल काहे नहीं ले लेते? कब तक गदहे का मातम मनाओगे? छह महीना बीत गया... अब का मिलेगा... घण्टा...
धनिया- हमरा मन कहता है कि बैसाखी एक न एक दिन जरूर मिलेगा। तीन कोना छान मारे हैं, अब  पुरवारी टोला बाकी है। सोचते हैं कि बिहान एक बार दानापुर की ओर देख लें। (ठंडी आह भरते हुए) मन में मलाल तो नहीं रहेगा कि उसे उस तरफ नहीं खोजा। हमको लगता है कि उ उधरे ही कहीं मिलेगा।
मुनिरका- फिर वही पागलपन। हम का बोले...? अगर मिलना होता तो मिल गया होता। अब खोजबीन छोड़ो और काम धंधा पर ध्यान दो। ग्राहक किसी का नहीं होता है। एक बार छोड़कर चला गया तो दोबारा उस ग्राहक को पाना बहुत मुश्किल होता है।  ... बेचारी भौजी को देखा है ... चेहरा कैसा कुम्हला गया है। लगता है जैसे रोगी है।
धनिया- बस भैया, तुम्हरी कसम... बिहान भर खोजेंगे ... न मिला तो समझ लेंगे कि ...बात पूरी नहीं कर पाया धनिया। सामने रुआंसी सुखनी छुटकी को कमर पर टांगे दरवाजे पर खड़ी थी। थोड़ा सम्भलते हुए धनिया ने कहा- का भागवान.... घबरा काहे जाती हो? कौनो ट्रेन से कटने थोड़े गए थे। फिर छुटकी को अपनी गोद में ले लिया और दुलारते हुए कमरे में चला गया। खुशामदी लहजे में पत्नी से बोला- मुनिरका को चाह-पानी तो पिलाओ। (छुटकी को बिस्तर पर रखते हुए मुनिरका से कहा) आओ भाई ... बैठो। तुम्हरे बहाने हमको भी चाह मिल जाएगा।
लेकिन सुखनी तो जैसे पूरी तरह लड़ाई के मूड में थी। घर में क्या है, क्या खतम हो गया, ये तो पूछा नहीं, ऊपर से चाय बनाने का ऑर्डर दे दिया। जैसे घर में सामान खरीद कर रख दिया हो। एक सांझ का आटा बचा है। तरकारी भी नहीं है कई दिन से। केले की तरकारी और छिलके का चोखा खा-खा कर मन बिगड़ गया है। कानी आंख भी उस पर नजर फेरने का मन नहीं करता है। कल सांझ के बाद ये भी खत्म हो जाएगा। चावल खत्म हुए आज छठा दिन है, लेकिन यहां हाकिम को सूझता थोड़े है। हमरा त करम उसी दिन फूट गया जिस दिन मां-बाप ने इसके पल्ले बांध दिया। फिर भी जैसे रखता है हम रह लेते हैं, लेकिन बच्चों का क्या होगा? इन्हें अकेला छोड़कर तो मर भी नहीं सकती। अगर मुनिरका यादव नहीं रहता तो आज फैसला हो जाता। फिर भी सुखनी ने चुप रहना ही मुनासिब समझा। मुनिरका चाय पीकर चला गया तो छोटका दुलार करवाने के लिए बाप की गोद में घुसने लगा। धनिया देर तक बच्चों के साथ खेलता रहा। सुखनी खाना पका चुकी तो चुपचाप खाने की थाली बिस्तर पर रख कर बाप की छाती पर बैठी छुटकी को उठाया ओर छोटका को कान से खींचते हुए भीतर वाले कमरे में ले गई। दोनों बच्चे टेंटियाने लगे तो सुखनी ने उन्हें धुन दिया। बेचारे बच्चे रोते-रोते सो गए। इधर, धनिया भुनभुनाता रहा। फिर खाना खाकर खटिया पर पसर गया। लेकिन बच्चों को सुलाकर सुखनी खुद जाग रही थी। आंखों के पोरों से आंसू ढरक कर दोनों ओर तकिए पर गिर रहे थे। खाना भी नहीं खाया उसने।
अगले दिन सुबह-सवेरे ही सुखिया दानापुर के लिए निकल गया। दोपहर बाद पसीने में तरबतर घर लौटा और चहकते हुए पत्नी से कहा- मैं न कहता था सुखी... एक न एक दिन हमारा बैसाखी जरूर मिलेगा हमें। ...(गर्व से छाती में हवा भरते हुए) आखिर खोज लिए न।
सुखनी- सच्चो! अपना बैसाखी मिल गया!!!??? (सुखनी के चहरे पर ख़ुशी और विस्मय के मिले-जुले भाव उभर आए। सिर पर आंचल करते हुए धरफराती हुई बाहर निकली। दाएं बाएं देखा, लेकिन जब कोई नहीं दिखाई दिया तो भागकर अंदर आई और जिज्ञासावश पति से पूछी)- कहां है जी हमारा बैसाखी? बाहर त नहीं है। साथ में नहीं लाए हैं का? कहां छोड़ आए उसे?
‘भागवान! धीरज धरो... बैसाखी दानापुर में है किसी के पास। हम त उसको ले ही आते, ... लेकिन जिसके घर के देहरी पर वह बंधा था, उसका घरवाला नहीं था। उसकी लुगाई कहती है कि बैसाखी उसका है। उसका घरवाला सोनपुर मेला से खरीद के लाया है। ... जैसे हम अपना बच्चा के पहचानवे नहीं करते हैं। अरे... छह महीना का था तब से उसे पाला है। बात करती है .... उसका कैसे हो जाएगा? ... बैसाखी घर का रस्ता का भटक गया ... कम्बख्त ने उसे दरवाजे पर बांध लिया, जैसे उसका कोई माई-बाप नहीं है। धरती-पाताल एक कर दिए ... लेकिन बैसाखी को खोज ही लिए। सुखी उ अपना बैसाखी ही है। अब त दरोगा का सहारा है। थाना जा रहे हैं हम। दरोगा को कहेंगे कि तुम फोटो के लिए बैठे रहो, ... हमने अपना बैसाखी खोज भी लिया। अब उसे हमें दिलवा दे।’
धनिया थाने पहुंचा। कुर्सी पर बैठकर दारोगा दोनों टांगें टेबुल पर रखे चाय की चुस्की ले रहा था। सुखिया अंदर पहुंचा तो दोनों पैर फैलाए दारोगा ने जूतों के बीच से उसे घूरकर देखा। बोला- का बात है बे? गदहे फोटो ले आया का?
धनिया- हजूर, हमने त बैसाखी को खोज भी लिया। दानापुर के अनूप टोला में है। अब तो उसे हमें दिला दीजिए दरोगा जी। बड़ी मेहरबानी होगी। बड़ी परेसानी के दौर से गुजरे हैं। पूरा छह महीना उसके लिए जाने कहां-कहां भटके ... तब जाकर मिला।
दारोगा - ठीक है ...चाय की चुस्की लेते हुए ... कल देखेंगे। आज गर्मी दिमाग में चढ़ गया है। कपार में दरद है। सबेरे आना फैसला कर देंगे।
दारोगा का आश्वासन पाकर धनिया मारे ख़ुशी के फूले नहीं समा रहा है। उसकी ख़ुशी का कोई पारावार नहीं है। धनिया घर लौटा तो रोज की तरह मातम नहीं, बल्कि उत्सव सा माहौल था। बच्चे भी रो नहीं रहे थे। पत्नी द्वार पर टकटकी लगाए बैठी उसके आगमन की बाट जोह रही थी। खाना खाकर पति-पत्नी देर तक बतियाते रहे। धनिया बिस्तर पर गिरा, लेकिन सो नहीं सका। रात करवटों में ही बीती। यही हाल सुखनी का भी था। दोनों बेसब्री से सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। धनिया सोचता रहा- ‘बैसाखी काफी दुबला हो गया है। बेचारे को खाना बिना सुखा दिया है। मन तो करता है कि अभी जा के उसे खूब दुलार करूं। मेरा बच्चा! कितने दुख सहे होंगे। मैं भी तो उसे बिना वजह मारता-पीटता था। ... आखिर मेरा बच्चा है ... दुलार भी तो करता था।’ फिर पता नहीं कब सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। सुबह पत्नी ने जगाया तो धरफरा कर उठा और कुल्ला कर के गमछा कंधे पर रखा और थाने की ओर कूच कर गया। सुखनी कुछ कहती, तब तक वह गली पार कर चुका था।
सात बजे हैं। धनिया थाने में हाजिर है। मुंशी से पूछा- दरोगा जी नहीं दिखाई दे रहे हैं।
मुंशी - पगला गया है का? एतना सबेरे-सबेरे आ गया। जानता नहीं दरोगा जी देर रात को घर जाते हैं। चौबीसो घंटे क्या तुम्हीं लोगों की सेवा में लगे रहेंगे? अपना घर-दुआर उनका जैसे है ही नहीं। ... जा बाहर जा के बैठ। नौ बजे के बाद आएंगे दरोगा जी।
जी सरकार- कहकर धनिया बाहर गली की ओर मुंह करके बैठ गया।
नौ बजे जब दारोगा आया तो धनिया उसके पीछे-पीछे अंदर आया। हाथ जोड़ कर बोलो- सरकार ... न्याय किया जाए ...
दारोगा ने हाथ से उससे दम धरने का इशारा किया। बेल्‍ट ढीली कर कमीज बाहर निकालते हुए कुर्सी पर बैठा और दोनों टांगें टेबल पर फेंक दी। फिर बोला- हां, भई... अब बक। कहां क्‍या देखा? कैसे पता चला कि उ तुम्‍हारा ही गदहा है।
धनिया- सरकार... उ हमरा बच्‍चा है। छह महीना का था तब से उसे पाला-पोसा है। अपने बच्‍चे को कइसे नहीं पहचानेंगे।
दारोगा- हुं.... फिर से सोच ले। पक्‍का गदहा तुम्‍हारा ही है?
धनिया- सरकार ....सौ फीसद
दारोगा- ठीक है। अब ताे कुछ करना ही पड़ेगा। फिर एक सिपाही को बुलाया - रामसरूप ... जरा इसके साथ अनूप टोला जाकर गदहे के साथ उसके मौजूदा मालिक को थाने ले आओ। ऐ धनिया तू भी साथ में जा। ...
दोनों रवाना हो गए।
दोपहर दो बजे तीनों गदहे के साथ थाने पहुंचे। धनिया बैसाखी से लिपट कर बोला- मालिक अब हम इसे अपने साथ ले जाएं?
दारोगा- काहे रे! एक मिनट में तुम्हरा मिरगी छोड़ा देंगे। स्साले चुपचाप खड़ा रह। नहीं त उल्टा लटका कर तशरीफ़ पर इतना बजाएंगे कि सोते-जागते सरगम गाएगा।
फिर दोनों की ओर मुखातिब होकर बोला- हां तो धनिया, तू कहता है कि ई गदहा तेरा है। अब गदहे के मालिक से भी तो पूछ लें कि वो क्या कहता है। (अनूप टोले वाले को ताड़ते हुए) - क्यों बे ... ई गदहा किसका है?
माई-बाप हमरा है ... (धनिया को देखते हुए) और किसका होगा। छह महीना पहले सोनपुर मेला से इसको खरीद के लाए थे। पूरा 2,000 रुपया दिए हैं।
धनिया- सरकार, ई मेरा बैसाखी है। ... झूठ बोलता है ई आदमी।
गधे के दो-दो दावेदार देख कर दारोगा बड़ी मुश्किल में फंस गया। कोई मानने को तैयार नहीं था कि गदहा उसका नहीं है। फिर कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा- देखो भाई, हम जो न्याय करेंगे, वह अंतिम होगा। दोनों पक्ष को फैसला मानना पड़ेगा। बोलो मंजूर है।
दोनों हाथ जोड़ कर बोले- अब तो सरकार आपके न्याय का ही आसरा है।
दारोगा- तो ठीक है ... इस गदहे को खुला छोड़ दो। (एक सिपाही से)- ऐ एक लाठी मार गदहे को। इसके बाद ई जिसके घर जाएगा, गदहा उसी का माना जाएगा।
लट्ठ पड़ते ही गदहा ढेंचू-ढेंचू कर के भागा। दारोगा, दो सिपाही और गदहे के दोनों दावेदार उसके पीछे-पीछे। भागता हुआ गदहा सीधे धनिया के घर पहुंच कर रुका।
दारोगा बोला- फैसला हो गया। ये गदहा धनिया का ही है। क्यों धनिया ... खुश है न?
जी हुकुम- धनिया ने तो जैसे पूरा संसार जीत लिया था। दारोगा जी का फैसला सुनकर धनिया, उसकी पत्नी और छोटका की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। खुशी इस बात से दोहरी हो रही थी कि बैसाखी आज पूरे तीन साल का हो गया था। सुखनी भागकर अंदर गई और थाली में रोटी, रोली, दीया जला कर ले आई। पूरे विधि से बैसाखी की आरती उतारी और लोटे से उसके आगे पानी गिराया और रोटी उसे खिलाई। छोटका बैसाखी की पीठ पकड़ कर उछल-कूद कर रहा था तो बाप ने उसे पीठ पर बैठा दिया। छुटकी सामने बैठी बैसाखी को खाते निहार रही थी। धनिया प्यार से उसके सिर पर हाथ फिरा रहा था और सुखनी बैसाखी को प्यार से रोटी खिला रही थी।

शब्दार्थ
१. खटाल- गाय, भैंस के लिए बना शेड
२. फुलौना- गुब्बारा
३. जोर-पगहा तुडाना - जिद करना
४. समाद- सन्देश
५. महतारी- माँ
६. मेहरारू- पत्नी
७. पुरवारी- पूरब की ओर
८. बिहान- कल (आनेवाला)
९. देहरी- घर का प्रवेश द्वार 




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