बुधवार, 15 मार्च 2017

एक गदहे की आत्‍मकथा

आज जबकि गदहे उन्‍मूलन के कगार पर पहुंच गए हैं, ऐसे में दिल्‍ली जैसे मेट्रो शहर में इसे देखकर आश्‍चर्य के साथ मुझे खुशी भी हुई। दरअसल, चुनाव में गदह चर्चा के बाद से मैं सोच रहा था कि किसी गदहे का साक्षात्‍कार करूं। चूंकि चर्चा का विषय कच्‍छ का गदहा था, इसलिए थोड़ा संकोच हो रहा था। कहां कच्‍छ और कहां दिल्‍ली। इसलिए आइडिया ही ड्रॉप कर दिया। लेकिन एक दिन घर से निकलते समय गली में ही एक गदहा दिख गया। वह निरीह भाव से रेत की बोरियां लादे चला आ रहा था। अवसर सामने देखकर मैं गदहे को रोकने के लिए उसके सामने खड़ा हो गया। लेकिन उसने नजर उठाकर मुझे देखा तक नहीं और रास्‍ता बदलकर जाने लगा।

मैंने गुजारिशी लहजे में कहा- गर्दभ जी। आपसे बात करनी है। अपने व्‍यस्‍ततम समय में से मेरे लिए भी थोड़ा वक्‍त निकालिये। गदहा रुक गया, लेकिन कुछ बोला नहीं। पास गया तो उसने सिर हिलाकर जैसे स्‍वीकृति दे दी कि जल्‍दी पूछो, क्‍या पूछना है। मैंने कहा, गर्दभ जी… अब तक तो आपका समुदाय नेपथ्‍य में था, लेकिन अचानक … राजनीति के शिखर पर पहुंच गया। उसने कहा- मुझे तत्‍सम (गर्दभ) कहो, चाहे तद्भव (गदहा)… कोई फर्क नहीं पड़ता। रही बात राजनीति की तो मेरा और न ही हमारे समुदाय का इससे कोई वास्‍ता है। हमें जान-बूझकर षड्यंत्र के तहत इस दलदल में घसीटा जा रहा है। मैंने उससे तफ्सील से बताने को कहा तो उसने अपना दर्द बयां किया। उससे बातचीत के अंश को अक्षरश: प्रस्‍तुत किया जा रहा है-

हमें गदहा, गधा, गर्दभ, वैशाख नंदन … कुछ भी कह लो। हम जो हैं, तीनों काल में वही रहेंगे। बोझ ढोना ही हमारी नियति है और हम इसे स्‍वीकार कर चुके हैं। मुझे या मेरे समाज को कौन पूछता है? सदियां बीत गईं… किसी ने तो नहीं पूछा। धोबी अपने स्‍वार्थ के लिए हमारे पूर्वजों को अपने घर ले आया। तब से अब तक पीढ़ी दर पीढ़ी हम पूर्वजों के उस फैसले का निर्वहन करते आ रहे हैं। कोई मैदानी इलाके मे हम पर बोझ ढ़ोता रहा तो कोई पहाड़ों पर हमारा इस्‍तेमाल अपने सपनों का घर बनाने के वास्‍ते ईंट और बालू ढोने के लिए करता रहा। परंतु किसी ने न तो अच्‍छा खाना दिया, न घर दिया, न ही सर्दी-गर्मी और बरसाती कपड़े। फिर भी किसी से कोई शिकवा-गिला नहीं किया। आज भी हम हर मौसम में मौसम में खुले आकाश के नीचे रहते हैं। हाड़तोड़ मेहनत के बाद सूखी घास ही खाते हैं।

हम सर्व सुलभ और अति साधारण प्राणी हैं। यूं कहूं कि यह धोबी ही था जिसने हमारी उपयोगिता खोज निकाली थी। हम एक धोबी के लिए अर्थशास्‍त्र हैं। उसकी आर्थिक विकास का माध्‍यम हैं। उसके लिए हम BMV से कम भी नहीं हैं। रूखी-सूखी घास खाकर भी उसके यहां पड़े रहे, कपड़ों के गट्ठर ढोते रहे। मैदानी और पहाड़ी इलाकों में कहीं-कहीं हमने मजदूरों को रिप्‍लेस भी किया है। यह सब हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन नेताओं और राजनीति की आंच अपने समाज की तरफ कभी पहुंचने नहीं दी। फिर भी नेताओं ने हमें इस दलदल में घसीट लिया। यह जानते हुए कि हमारे पास न कोई ‘आधार’ है, न कोई वोटर कार्ड और न ही कोई चुनाव क्षेत्र। फिर भी जब चुनाव का बोझ लाद ही दिया तो पहली बार हमारे समाज का एक प्रतिनिधि गर्दभ सिंह यादव लखनऊ कैंट क्षेत्र से नामांकन भरने गया। लेकिन पुलिस वालों ने ड़डे फटकार कर उन्‍हें भगा दिया।

विद्रोह करना हमारे खून में नहीं है। हम तो सहज और समर्पण भाव से बस चाकरी करना जानते हैं। हमें मंद बुद्धि कहा जाता है। इनसान हमारा नाम लेकर किसी को भी बोल देते हैं- गदहा कहीं का… एकदम गदहे हो… ये तो गदहा ही रहेगा… गदहे की तरह लगे रहो। गदहा कहे जाने पर हमें कोई तकलीफ नहीं होती, क्‍योंकि हम हैं। हम निठल्‍ले नहीं हैं, लेकिन जिसे हमारा नाम लेकर संबोधित किया जाता है, उसे जरूर तकलीफ होती होगी। इतना तक तो ठीक था… लेकिन चुनावी दंगल में बेवजह घसीटा जाना मुझे और हमारे समुदाय को सचमुच अच्छा नहीं लगा। हम न तो टीवी देखते हैं और न ही अखबार पढ़ते हैं। बस लोगों से ही पता चल जाता है कि लोग हमारे बारे में क्‍या सोचते हैं। सुना है, कच्‍छ के गदहों के साथ अमित जी को गुजरात टूरिज्म का प्रचार करते हैं। प्रचार के बहाने हमारे समाज को थोड़ी फुटेज मिल गई तो नेताओं के पेट में दर्द क्‍यों उठने लगा? इससे तो यही साबित होता है कि उनका बुरा वक्‍त चल रहा है और वे हमें अपना बाप बनाने वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहे हैं।

अफसोस सिर्फ इस बात की है कि वोट पाने के लिए हमें मोहरा तो बनाया गया, लेकिन हमारे समाज को हिकारत की नजर से ही देखा गया। कच्छ, जैसलमेर और जोधपुर की गोरखर नस्ल का गधा ही नहीं, तिब्बत के पहाड़ों का क्यांग नस्ल का गधा भी उतना ही मशहूर है।

नेताजी को शायद यह मालूम नहीं, दो गुणसूत्र और अधिक होते तो हम भी घोड़ा बन सकते थे। अफसोस… विधाता ने दो गुणसूत्र कम दिए। आज तक हमें सूखी घास के अलावा चना भी नसीब नहीं हुआ। हां, कभी-कभी हरी घास का मैदान भी मिल जाता है। लेकिन गलती से किसी के खेत के पास से भी गुजरते हैं तो हम पर बेभाव डंडे पड़ते हैं। आज तक किसी ने हमारे खाने-पीने की परवाह नहीं की। फिर भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि गदहे च्वनप्राश खा रहे हैं। हमने तो नहीं चखा कभी। पतंजलि वाला छाेड़िए, सादा च्वनप्राश भी देखना नसीब नहीं हुआ, खाना तो दूर की बात। फिर भी हम सेहतमंद रहते हैं। हम पर ईश्‍वर की यही सबसे बड़ी और विशेष कृपा है। तभी तो आप लोग कहते हैं- अल्लाह मेहरबान तो गदहा पहलवान।

चुनाव में अपने समाज की छीछालेदर से हम बहुत आहत थे। भला हो प्रधान सेवक जी का, जिन्‍होंने यह कहकर हमारा सम्‍मान बढ़ा दिया कि हम उनकी प्रेरणास्रोत हैं। वह हमारी लगन और मेहनत से प्रेरणा लेते हैं। हमें वफादार और परिश्रमी कहकर हमारे समाज का मान बढ़ाया है। इसके लिए हमारा समाज उनका ऋणी रहेगा। उन्‍होंने बिल्‍कुल सच कहा है कि हम कम खर्च में भी संतुष्‍ट रहते हैं।

अपनी पूरी व्‍यथा सुनाने के बाद जैसे गदहे की चेतना जागी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो मालिक डंडा लहराते हुए भागा चला आ रहा था। गालियां दे रहा था…स्‍साले अभी तक यहीं खड़ा है। ठहर बताता हूं। डर के मारे गदहा तेज कदमों से भागने लगा और मैं वहीं खड़ा गदहे की विवशता देखता रह गया। एक बात मेरे दिल को छू गई…उसने अपनी बात नहीं की, बल्कि पूरे समाज का प्रतिनिधित्‍व किया। सच में गदहे मालिक ही नहीं, अपनी कौम के प्रति भी वफादार हैं।

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