ख़याल कभी-कभी केवल साहिर
लुधियानवी के जेहन में ही नहीं आता था। यह ख़याल मेरे... आपके...हम सभी के दादा-पिताजी
और यहां तक कि हमारे बच्चों के जेहन में भी गाहे-बजाहे आ ही जाता है। अलग बात है कि
हम में से अधिकांश इसे तवज्जो नहीं देते और एक ख़याल भर समझकर झटक देते हैं। लेकिन
साहिर साहब इसे ‘कैश’ कराने में सफल रहे। कहानी भी उन्हीं की, ख़याल
भी उन्हीं का और संगीतकार भी उन्हीं का खोजा हुआ। बस मेहरबानी की तो chopra’s
ने। साहिर साहब ने पूरा ख़याल chopra’s की डिमाण्ड पर लिखा और यश बटोर ले गए। अब जब
कभी-कभी मेरे जेहन में genuine ख़याल
आता भी है तो उस पर copy & paste का तमगा जड़ दिया जाता है। अब बात निकली है तो दूर तलक भी जाएगी।
मेरे जेहन में एक ख़याल
बार-बार घूम-फिर कर लौट आता है। गाय न होती तो गोबर न होता। भैंस पानी में नहीं जाती
तो राम भला करने कभी नहीं आते। आ़खि़र यह ख़याल क्यों आता है? उपरोक्त पंक्ति के रचयिता तो शर्तिया कोई अज्ञात
नामवर ही होंगे, जिसे समकालीन साहित्य और दर्शन में स्थान नहीं मिला। लेकिन अभी की
तरह हर काल में इसी तरह हर किसी के सामने आता रहा होगा। पहले बाद वाली बात पर बाद में
गलथेथरी करूंगा। ...गई भैंस पानी में, भला करेंगे राम...से चर्चा शुरू कर रहा हूं।
यह बात किसी चरवाहे द्वारा कही गई होगी। उसके समक्ष परिस्थितियां कुछ ऐसी रही होंगी
कि प्रचण्ड गर्मी के मौसम में वह भैंस चरा रहा होगा। चरते-चरते भैंस किसी तालाब, पोखर
या नदी में उतर गई होगी...नहाने और पानी पीने के लिए। यह देखकर चरवाहा डर गया होगा।
चूंकि उसे तैरना नहीं आता होगा और जंगल या बियाबान में उसकी मदद की पुकार कोई सुन भी
नहीं पाया होगा, जो भैंस को पानी से बाहर निकालने आ सके। अंत में उसने रामजी को याद
किया होगा। जैसा अक्सर होता है। मुसीबत में पड़ा व्यक्ति चाहे कितना भी नास्तिक हो....उसके
पास अंतिम विकल्प प्रभु सिमरन ही होता है। हां तो चरवाहा इसी उम्मीद में भैंस को
पानी में जाता देख रहा होगा कि रामजी आएंगे और मेरा उद्धार या भला करेंगे। अब उम्मीद
तो अवास्तविक है, बिना इच्छाशक्ति और प्रयास किए यथार्थ की धरातल पर कैसे उतर सकती
है। ठीक उसी तरह भैंस स्वेच्छा से तब तक पानी से बाहर नहीं आती, जब तक कि उसे पूरी
तरह ठंढक नहीं मिल जाए या उसे हांक कर बाहर न निकाला जाए। वैसे भी भैंस को गर्मी कुछ
ज्यादा ही लगती है।
दूसरी परिस्थिति कुछ
ऐसी रही होगी। दो चरवाहे गाय-भैंसों को चरा रहे होंगे। एक यह कहकर किसी पेड़ की छांह
में सुस्ताने चला गया होगा कि...भाई थकान सी हो रही है। थोड़ी देर के लिए सुस्ताने
जा रहा हूं। तुम ज़रा मेरी गाय-भैंसों का ख़याल रखना। यह तो मानव स्वभाव है कि यदि
कोई विचार किसी व्यक्ति के जेहन में आता है और पहले कह देता है, तो वह बाज़ी मार लेता
है। अलग बात है कि वही या कुछ वैसा ही ख़याल दूसरे के मन में भी आ रहा हो, लेकिन संकोच
के मारे वह कह नहीं पाया। लेकिन जब अपना काम अढ़ा कर पहला शख्स जाने लगा तो दूसरा
एकदम से चिढ़ गया होगा। उसने सोचा होगा...हम दोनों साथ ही आए, लेकिन यह थक गया। हुह..
अपनी ऐसी-तैसी कराओ। लेकिन ऊपरी मन से उसने अगले को जाने कह दिया। पहले शख्स के जाने
के बाद जब उसकी भैंस पानी में चली गई होगी, तो पशुओं की निगरानी का दायित्व जबरन सौंपे
जाने पर दूसने उसकी अनदेखी की होगी। यह सोचकर कि मेरी भैंस पानी में थोड़े न जा रही
है। जिसकी जा रही है, वह समझे। मेरा क्या?
जब पहला जागा होगा तो
अपनी भैंस को गहरे पानी में देख कर कांप गया होगा। वह दहाड़ मार कर रोने लगा होगा कि
अब क्या होगा? यह सोच-सोच कर पछाड़ खा रहा होगा कि भैंस को अपने साथ
घर न ले गया तो बेभाव जूते पड़ेंगे। ऐसी स्थिति में दूसरे ने उसे सांत्वना दी होगी... रामजी
पर भरोसा रखो। वही भला करेंगे। अब रामजी आए होंगे कि नहीं...उस काल में जाकर यह देखने
की शक्ति मुझ में होती तो मैं यहां घास नहीं काट रहा होता। न ही रोज़ साठ हज़ार (साठ हज़ार वाली बात गूढ़ विषय है, जिसे मेरे आसपास
रहने वाले ही समझ सकते हैं) के लिए
तड़पते और मायूस होते अनुजों को रोज़ यह कहकर ढांढस बंधाता कि सब्र कर! ऊपर वाला सब देख रहा है। लाख टके का सवाल यह कि रामजी भैंस के पानी में जाने पर ही क्यों आते हैं? पहले अलर्ट जारी नहीं कर सकते?
गाय और गोबर पर
चर्चा बाद में।
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