बुधवार, 19 जनवरी 2011

एक भरोसे ने ठंढ़ में मारा

दिसंबर का आखिरी सप्ताह था. एक तो ममता दीदी की ट्रेनों ने बड़ी बेदर्दी से मारा. ऊपर से दोस्त के स्नेह ने रात भर प्लातेफ़ोर्म पर रात गुज़ारने को मजबूर कर दिया. लाचारी कुछ ऐसी थी कि कहीं और जा भी नहीं सकता था.
बात लखनऊ की है. अभी मुश्किल से सप्ताह भर पहले ही लौटा था कि पता चला मेरे एक परिचित जो मेरे मित्र के छोटे भाई हैं, वहीँ आ गए हैं. जा ही रहा था तो सोचा क्यों न उनके पास ही चला जाये. इसी बहाने उनसे मुलाकात भी हो जाएगी. अपने आगमन की पूर्व सूचना तो दे ही दी थी, पहुँचने से पहले भी दो तीन बार फोन कर लिया कि टपक रहा हूँ. भाई ने सहृदयता से बुलाया भी. ट्रेन के लक्षण ठीक नहीं देखकर मैंने करीब ९-१० बजे फिर फोन कर दिया कि ट्रेन लेट हो सकती है. उम्मीद है ११ भी बज जाये. तय हुआ कि जब भी पहुंचूं उन्हें फोन कर दूंगा ताकि वो लेने आ जाएँ. हादसे का सफ़र यहीं से शुरू हुआ. वैसे ट्रेन में सवारहोने से पहले ही इसकी शुरुआत हो गयी थी. ट्रेन निर्धारित समय से कुछ घंटे देर से चली. हाँ तो, करीब ११ बजे से ही मुझे लगने लगा था कि आज कि रात भारी गुजरने वाली है. पता नहीं क्यों हर बार मुझे आभास हो जाता है कि मेरे साथ कुछ गड़बड़ होने वाला है... कभी कभी तो पूरा पूरा पता चल जाता है. जैसे पिताजी के देहांत से ३ माह पहले मुझे उनकी सारी बातें याद आने लगीं. साथ में एक डर कि शायद पिताजी..... आशंकाएं निर्मूल नहीं थीं. उसके पहले एक ऐसे रिश्ते के अंजाम का आभास हुआ था कि सब छूटने वाला है...वह भी सच साबित हुआ. ऐसे ढेरों वाक़यात हैं.
मन में हुआ कि फोन कर दूँ कि बस पहुँचने वाला हूँ. लेकिन यह सोचकर कि अब सीधे स्टेशन से ही फोन करूँगा. जिस मुई गाड़ी को शाम ६ बजे लखनऊ पहुंचना था वह रात के ११:३० बजे पहुंची. उतरते ही फोन घुमाया, लेकिन बन्धु ने उठाया नहीं. फिर किया...कोई जवाब नहीं. मेरे पास सिर्फ़ पता ही सहारा था. बहरहाल हम कोशिश करते रहे और हमारी कोशिश नाकाम होनी थी, इसलिए नाकाम होती रही. खैर एक ऑटो वाले से पूछा कि आशियाना ले चलोगे? उसने कहा- इसीलिए तो खड़े हैं हुज़ूर.
हमने कहा- चलो. पैसे कितने लोगे?
ऑटो वाले ने अनुमान के मुताबिक़ ही मुह फाड़ा- १०० रूपए.
खैर हम चल पड़े. इस कवायद में १२:३० बज गए थे. एक बजे एल डी ए कालोनी पहुंचे, लेकिन लैंड मार्क नहीं मिला. ऑटो वाले को भी घुमाता रहा पर उसे भी पाता नहीं था. आखिरकार हमने उसे मुक्त कर दिया और कंधे पर बैग टाँगे भटकते रहे. कई बार फोन भी किया लेकिन जवाब नहीं मिला. आख़िरकार मकान ढूंढ लिया. कॉल बेल बजायी तो दो अनजान चेहरे देख के लगा...बज गयी घंटी. ये तो गलत पता है भाई. हुआ भी वही. मित्र ने जो पता दिया था वह उनके हिसाब से सही था और मैं जिस पते पर पहुंचा था वह मेरे हिसाब से सही था. खैर ये पता गलत निकला. मैं अब विकट मुश्किल में था. क्योंकि अमूमन मैं किसी के यहाँ जाता ही नहीं. होटल में ही ठहरना मुनासिब समझता हूँ. बैग टाँगे चलता रहा. काफी थक चुका था. वहीँ गोल मार्केट में खाली बेंच देखा तो बैग रखा और चादर बिछा कर बैठ गया. मन हुआ कि सो जाऊं. अब तक रात के १:३० बज गए थे. ठंढ में देर तक बैठा रहा...पर और बैठना मुनासिब नहीं लगा. बैठ टांगा और चल पड़ा. कोई ४ किलोमीटर चल कर सड़क पर पहुंचा तो ऑटो मिल गया. सीधे स्टेशन पहुंचा. अब रात के करीब ५ बज गए थे. कहीं कोई जगह नहीं थी. प्लेटफोर्म एक पर एक बेंच खाली थी. थकान तो हो ही गयी थी. ऊपर से खाए हुए भी २४ घंटे हो गए थे. ठंढी हवा के मारे बुरा हाल था. मैंने बैग सिरहाने रखा और चादर ओढ़ के सो गया. लेकिन ठंढ ऐसी थी कि जूते के अन्दर पैर ठिठुरा जा रहा था. जैसे तैसे रात गुज़र गयी. ८ बजे के बाद भाई ने फोन किया. अफ़सोस जताया. जब पाता चला कि मैं स्टेशन पर ही रात भर रहा तो उसे ग्लानि हुई. उस से ज्यादा मुझे हुई. अपना ठिकाना होने के बावजूद मैंने ऐसे रात गुजारी.

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