tag:blogger.com,1999:blog-63342804293044463412024-03-08T03:45:55.172-08:00कहानी अपनी nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.comBlogger15125tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-55824317469838416092017-03-15T12:51:00.001-07:002017-03-15T13:06:37.188-07:00 एक गदहे की आत्मकथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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</h1>
आज जबकि गदहे
उन्मूलन के कगार पर पहुंच गए हैं, ऐसे में दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में
इसे देखकर आश्चर्य के साथ मुझे खुशी भी हुई। दरअसल, चुनाव में गदह चर्चा
के बाद से मैं सोच रहा था कि किसी गदहे का साक्षात्कार करूं। चूंकि चर्चा
का विषय कच्छ का गदहा था, इसलिए थोड़ा संकोच हो रहा था। कहां कच्छ और
कहां दिल्ली। इसलिए आइडिया ही ड्रॉप कर दिया। लेकिन एक दिन घर से निकलते
समय गली में ही एक गदहा दिख गया। वह निरीह भाव से रेत की बोरियां लादे चला आ
रहा था। अवसर सामने देखकर मैं गदहे को रोकने के लिए उसके सामने खड़ा हो
गया। लेकिन उसने नजर उठाकर मुझे देखा तक नहीं और रास्ता बदलकर जाने लगा।</div>
<br />
मैंने गुजारिशी लहजे में कहा- गर्दभ जी। आपसे बात करनी है। अपने
व्यस्ततम समय में से मेरे लिए भी थोड़ा वक्त निकालिये। गदहा रुक गया,
लेकिन कुछ बोला नहीं। पास गया तो उसने सिर हिलाकर जैसे स्वीकृति दे दी कि
जल्दी पूछो, क्या पूछना है। मैंने कहा, गर्दभ जी… अब तक तो आपका समुदाय
नेपथ्य में था, लेकिन अचानक … राजनीति के शिखर पर पहुंच गया। उसने कहा-
मुझे तत्सम (गर्दभ) कहो, चाहे तद्भव (गदहा)… कोई फर्क नहीं पड़ता। रही बात
राजनीति की तो मेरा और न ही हमारे समुदाय का इससे कोई वास्ता है। हमें
जान-बूझकर षड्यंत्र के तहत इस दलदल में घसीटा जा रहा है। मैंने उससे तफ्सील
से बताने को कहा तो उसने अपना दर्द बयां किया। उससे बातचीत के अंश को
अक्षरश: प्रस्तुत किया जा रहा है-<br />
<br />
हमें गदहा, गधा, गर्दभ, वैशाख नंदन … कुछ भी कह लो। हम जो हैं, तीनों काल
में वही रहेंगे। बोझ ढोना ही हमारी नियति है और हम इसे स्वीकार कर चुके
हैं। मुझे या मेरे समाज को कौन पूछता है? सदियां बीत गईं… किसी ने तो नहीं
पूछा। धोबी अपने स्वार्थ के लिए हमारे पूर्वजों को अपने घर ले आया। तब से
अब तक पीढ़ी दर पीढ़ी हम पूर्वजों के उस फैसले का निर्वहन करते आ रहे हैं।
कोई मैदानी इलाके मे हम पर बोझ ढ़ोता रहा तो कोई पहाड़ों पर हमारा
इस्तेमाल अपने सपनों का घर बनाने के वास्ते ईंट और बालू ढोने के लिए करता
रहा। परंतु किसी ने न तो अच्छा खाना दिया, न घर दिया, न ही सर्दी-गर्मी
और बरसाती कपड़े। फिर भी किसी से कोई शिकवा-गिला नहीं किया। आज भी हम हर
मौसम में मौसम में खुले आकाश के नीचे रहते हैं। हाड़तोड़ मेहनत के बाद सूखी
घास ही खाते हैं।<br />
<br />
हम सर्व सुलभ और अति साधारण प्राणी हैं। यूं कहूं कि यह धोबी ही था
जिसने हमारी उपयोगिता खोज निकाली थी। हम एक धोबी के लिए अर्थशास्त्र हैं।
उसकी आर्थिक विकास का माध्यम हैं। उसके लिए हम BMV से कम भी नहीं हैं।
रूखी-सूखी घास खाकर भी उसके यहां पड़े रहे, कपड़ों के गट्ठर ढोते रहे।
मैदानी और पहाड़ी इलाकों में कहीं-कहीं हमने मजदूरों को रिप्लेस भी किया
है। यह सब हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन नेताओं और राजनीति की आंच अपने
समाज की तरफ कभी पहुंचने नहीं दी। फिर भी नेताओं ने हमें इस दलदल में घसीट
लिया। यह जानते हुए कि हमारे पास न कोई ‘आधार’ है, न कोई वोटर कार्ड और न
ही कोई चुनाव क्षेत्र। फिर भी जब चुनाव का बोझ लाद ही दिया तो पहली बार
हमारे समाज का एक प्रतिनिधि गर्दभ सिंह यादव लखनऊ कैंट क्षेत्र से नामांकन
भरने गया। लेकिन पुलिस वालों ने ड़डे फटकार कर उन्हें भगा दिया।<br />
<br />
विद्रोह करना हमारे खून में नहीं है। हम तो सहज और समर्पण भाव से बस
चाकरी करना जानते हैं। हमें मंद बुद्धि कहा जाता है। इनसान हमारा नाम लेकर
किसी को भी बोल देते हैं- गदहा कहीं का… एकदम गदहे हो… ये तो गदहा ही
रहेगा… गदहे की तरह लगे रहो। गदहा कहे जाने पर हमें कोई तकलीफ नहीं होती,
क्योंकि हम हैं। हम निठल्ले नहीं हैं, लेकिन जिसे हमारा नाम लेकर संबोधित
किया जाता है, उसे जरूर तकलीफ होती होगी। इतना तक तो ठीक था… लेकिन चुनावी
दंगल में बेवजह घसीटा जाना मुझे और हमारे समुदाय को सचमुच अच्छा नहीं लगा।
हम न तो टीवी देखते हैं और न ही अखबार पढ़ते हैं। बस लोगों से ही पता चल
जाता है कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। सुना है, कच्छ के गदहों
के साथ अमित जी को गुजरात टूरिज्म का प्रचार करते हैं। प्रचार के बहाने
हमारे समाज को थोड़ी फुटेज मिल गई तो नेताओं के पेट में दर्द क्यों उठने
लगा? इससे तो यही साबित होता है कि उनका बुरा वक्त चल रहा है और वे हमें
अपना बाप बनाने वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहे हैं।<br />
<br />
अफसोस सिर्फ इस बात की है कि वोट पाने के लिए हमें मोहरा तो बनाया गया,
लेकिन हमारे समाज को हिकारत की नजर से ही देखा गया। कच्छ, जैसलमेर और
जोधपुर की गोरखर नस्ल का गधा ही नहीं, तिब्बत के पहाड़ों का क्यांग नस्ल का
गधा भी उतना ही मशहूर है।<br />
<br />
नेताजी को शायद यह मालूम नहीं, दो गुणसूत्र और अधिक होते तो हम भी घोड़ा
बन सकते थे। अफसोस… विधाता ने दो गुणसूत्र कम दिए। आज तक हमें सूखी घास के
अलावा चना भी नसीब नहीं हुआ। हां, कभी-कभी हरी घास का मैदान भी मिल जाता
है। लेकिन गलती से किसी के खेत के पास से भी गुजरते हैं तो हम पर बेभाव
डंडे पड़ते हैं। आज तक किसी ने हमारे खाने-पीने की परवाह नहीं की। फिर भी
आरोप लगाए जा रहे हैं कि गदहे च्वनप्राश खा रहे हैं। हमने तो नहीं चखा कभी।
पतंजलि वाला छाेड़िए, सादा च्वनप्राश भी देखना नसीब नहीं हुआ, खाना तो दूर
की बात। फिर भी हम सेहतमंद रहते हैं। हम पर ईश्वर की यही सबसे बड़ी और
विशेष कृपा है। तभी तो आप लोग कहते हैं- अल्लाह मेहरबान तो गदहा पहलवान।
<br />
<br />
चुनाव में अपने समाज की छीछालेदर से हम बहुत आहत थे। भला हो प्रधान सेवक
जी का, जिन्होंने यह कहकर हमारा सम्मान बढ़ा दिया कि हम उनकी
प्रेरणास्रोत हैं। वह हमारी लगन और मेहनत से प्रेरणा लेते हैं। हमें वफादार
और परिश्रमी कहकर हमारे समाज का मान बढ़ाया है। इसके लिए हमारा समाज उनका
ऋणी रहेगा। उन्होंने बिल्कुल सच कहा है कि हम कम खर्च में भी संतुष्ट रहते हैं।<br />
<br />
अपनी पूरी व्यथा सुनाने के बाद जैसे गदहे की चेतना जागी। उसने पीछे
मुड़कर देखा तो मालिक डंडा लहराते हुए भागा चला आ रहा था। गालियां दे रहा
था…स्साले अभी तक यहीं खड़ा है। ठहर बताता हूं। डर के मारे गदहा तेज कदमों
से भागने लगा और मैं वहीं खड़ा गदहे की विवशता देखता रह गया। एक बात मेरे
दिल को छू गई…उसने अपनी बात नहीं की, बल्कि पूरे समाज का प्रतिनिधित्व
किया। सच में गदहे मालिक ही नहीं, अपनी कौम के प्रति भी वफादार हैं।</div>
nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-56089669977393015052016-04-07T03:26:00.001-07:002016-04-07T04:02:43.594-07:00भैंस पानी में गई, राम कब आएंगे? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">ख़याल कभी-कभी केवल साहिर
लुधियानवी के जेहन में ही नहीं आता था। यह ख़याल मेरे... आपके...हम सभी के दादा-पिताजी
और यहां तक कि हमारे बच्चों के जेहन में भी गाहे-बजाहे आ ही जाता है। अलग बात है कि
हम में से अधिकांश इसे तवज्जो नहीं देते और एक ख़याल भर समझकर झटक देते हैं। लेकिन
साहिर साहब इसे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">कैश</span>’<span lang="HI" style="font-family: "mangal";"> कराने में सफल रहे। कहानी भी उन्हीं की, ख़याल
भी उन्हीं का और संगीतकार भी उन्हीं का खोजा हुआ। बस मेहरबानी की तो </span>chopra’s
<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">ने। साहिर साहब ने पूरा ख़याल </span>chopra’s<span lang="HI" style="font-family: "mangal";"> की डिमाण्ड पर लिखा और यश बटोर ले गए। अब जब
कभी-कभी मेरे जेहन में </span>genuine <span lang="HI" style="font-family: "mangal";">ख़याल
आता भी है तो उस पर </span>copy & paste <span lang="HI" style="font-family: "mangal";">का तमगा जड़ दिया जाता है। अब बात निकली है तो दूर तलक भी जाएगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">मेरे जेहन में एक ख़याल
बार-बार घूम-फिर कर लौट आता है। गाय न होती तो गोबर न होता। भैंस पानी में नहीं जाती
तो राम भला करने कभी नहीं आते। आ़खि़र यह ख़याल क्यों आता है</span>?<span lang="HI" style="font-family: "mangal";"> उपरोक्त पंक्ति के रचयिता तो शर्तिया कोई अज्ञात
नामवर ही होंगे, जिसे समकालीन साहित्य और दर्शन में स्थान नहीं मिला। लेकिन अभी की
तरह हर काल में इसी तरह हर किसी के सामने आता रहा होगा। पहले बाद वाली बात पर बाद में
गलथेथरी करूंगा। ...गई भैंस पानी में, भला करेंगे राम...से चर्चा शुरू कर रहा हूं।
यह बात किसी चरवाहे द्वारा कही गई होगी। उसके समक्ष परिस्थितियां कुछ ऐसी रही होंगी
कि प्रचण्ड गर्मी के मौसम में वह भैंस चरा रहा होगा। चरते-चरते भैंस किसी तालाब, पोखर
या नदी में उतर गई होगी...नहाने और पानी पीने के लिए। यह देखकर चरवाहा डर गया होगा।
चूंकि उसे तैरना नहीं आता होगा और जंगल या बियाबान में उसकी मदद की पुकार कोई सुन भी
नहीं पाया होगा, जो भैंस को पानी से बाहर निकालने आ सके। अंत में उसने रामजी को याद
किया होगा। जैसा अक्सर होता है। मुसीबत में पड़ा व्यक्ति चाहे कितना भी नास्तिक हो....उसके
पास अंतिम विकल्प प्रभु सिमरन ही होता है। हां तो चरवाहा इसी उम्मीद में भैंस को
पानी में जाता देख रहा होगा कि रामजी आएंगे और मेरा उद्धार या भला करेंगे। अब उम्मीद
तो अवास्तविक है, बिना इच्छाशक्ति और प्रयास किए यथार्थ की धरातल पर कैसे उतर सकती
है। ठीक उसी तरह भैंस स्वेच्छा से तब तक पानी से बाहर नहीं आती, जब तक कि उसे पूरी
तरह ठंढक नहीं मिल जाए या उसे हांक कर बाहर न निकाला जाए। वैसे भी भैंस को गर्मी कुछ
ज्यादा ही लगती है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">दूसरी परिस्थिति कुछ
ऐसी रही होगी। दो चरवाहे गाय-भैंसों को चरा रहे होंगे। एक यह कहकर किसी पेड़ की छांह
में सुस्ताने चला गया होगा कि...भाई थकान सी हो रही है। थोड़ी देर के लिए सुस्ताने
जा रहा हूं। तुम ज़रा मेरी गाय-भैंसों का ख़याल रखना। यह तो मानव स्वभाव है कि यदि
कोई विचार किसी व्यक्ति के जेहन में आता है और पहले कह देता है, तो वह बाज़ी मार लेता
है। अलग बात है कि वही या कुछ वैसा ही ख़याल दूसरे के मन में भी आ रहा हो, लेकिन संकोच
के मारे वह कह नहीं पाया। लेकिन जब अपना काम अढ़ा कर पहला शख्स जाने लगा तो दूसरा
एकदम से चिढ़ गया होगा। उसने सोचा होगा...हम दोनों साथ ही आए, लेकिन यह थक गया। हुह..
अपनी ऐसी-तैसी कराओ। लेकिन ऊपरी मन से उसने अगले को जाने कह दिया। पहले शख्स के जाने
के बाद जब उसकी भैंस पानी में चली गई होगी, तो पशुओं की निगरानी का दायित्व जबरन सौंपे
जाने पर दूसने उसकी अनदेखी की होगी। यह सोचकर कि मेरी भैंस पानी में थोड़े न जा रही
है। जिसकी जा रही है, वह समझे। मेरा क्या</span>?</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">जब पहला जागा होगा तो
अपनी भैंस को गहरे पानी में देख कर कांप गया होगा। वह दहाड़ मार कर रोने लगा होगा कि
अब क्या होगा</span>?<span lang="HI" style="font-family: "mangal";"> यह सोच-सोच कर पछाड़ खा रहा होगा कि भैंस को अपने साथ
घर न ले गया तो बेभाव जूते पड़ेंगे।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal";">ऐसी स्थिति में दूसरे ने उसे सांत्वना दी होगी... रामजी
पर भरोसा रखो। वही भला करेंगे। अब रामजी आए होंगे कि नहीं...उस काल में जाकर यह देखने
की शक्ति मुझ में होती तो मैं यहां घास नहीं काट रहा होता। न ही रोज़ साठ हज़ार </span>(<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">साठ हज़ार वाली बात गूढ़ विषय है, जिसे मेरे आसपास
रहने वाले ही समझ सकते हैं</span>) <span lang="HI" style="font-family: "mangal";">के लिए
तड़पते और मायूस होते अनुजों को रोज़ यह कहकर ढांढस बंधाता कि सब्र कर</span>! <span lang="HI" style="font-family: "mangal";">ऊपर वाला सब देख रहा है। लाख टके का सवाल यह कि रामजी भैंस के पानी में जाने पर ही क्यों आते हैं? पहले अलर्ट जारी नहीं कर सकते? </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal";">गाय और गोबर पर
चर्चा बाद में। </span></div>
</div>
nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-8541641393091208192014-10-08T12:11:00.001-07:002016-11-16T01:09:14.783-08:00मैं भैरव हूं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white;"><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">बात ज्यादा पुरानी नहीं है। 2009 सितंबर के आखिरी सप्ताह यानि नवरात्र की है। नवरात्र के दौरान पूरे नौ दिन मैं भगवती की पूर्ण श्रद्धा और सात्विकता से उपासना करता हूं। यूं कहूं कि मैं उनकी मर्जी के खिलाफ कभी कुछ करता ही नहीं। वही राह सुझाती हैं और मैं उसी पर अब तक चलता आया हूं। दिसंबर 2008 से मेरे जीवन में कुछ ऐसी हलचल हुई जिससे मैं लगातार नौ माह तक जूझता रहा। जिंदगी का कोई मतलब नहीं रह गया था। दुर्भाग्य के ये नौ मास मैं कभी नहीं भूलूंगा। इससे पहले मैंने खुद को इतना कमजोर, लाचार और बेबस कभी नहीं पाया। इस दौरान मेरा ब्लड प्रेशर 176/97 रहता था, लेकिन काम के समय और तनाव के पल में यह और ज्यादा हो जाता था। नींद तो आती ही नहीं थी। कुल मिलाकर पागलपन की स्थिति थी। ब्लड प्रेशर जांचने के बाद एक बार डॉक्टर तो मेरे बारे में सुनकर चक्कर सा खा गया। उसने कहा- भाई सात दिन तक सुबह-शाम आपका ब्लड पे्रशर जांच करुंगा, इसके बाद ही कुछ कह पाऊंगा। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">हां, नवरात्र के दौरान मैं कहीं नहीं जाता। अपने कमरे पर ही रहना पसंद करता हूं। ... लेकिन इस बार सहकर्मी अनुजों की जि़द के आगे मुझे झुकना पड़ा। रात को करीब दो बजे या इसके बाद घर लौटते समय उनके कमरे पर चला जाता। इन्हीं दिनों इंटरनेट पर मेरा परिचय एक महिला से हुआ। वे रेकी मास्टर हैं। मैं पानीपत में रहता हूं और वे करीब 35 किलोमीटर दूर करनाल में रहती हैं। जब उन्हें पता चला कि मुझे नींद नहीं आती और मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है तो उन्होंने मुझे किसी अच्छे डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी। जब मैंने कहा कि मैं दवाई नहीं खाता। अपनी बीमारी मैं खुद ही ठीक कर लेता हूं तो उन्होंने कहा, 'मैं तुम्हें हीलिंग भेजती हूं। कुछ महसूस हो तो बताना। रात करीब डेढ़ बजे जब घर लौट रहा था तभी रास्ते में मुझे अहसास हुआ कि कोई मुझ तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है। पूरे शरीर में सिहरन सी हो रही थी। एक विलक्षण अनुभूति हो रही थी, मुझे बहुत आनंद आ रहा था। यह उनकी ओर से भेजी गई ऊर्जा थी जो मुझमें समा रही थी। मैं अतिशीघ्र कमरे पर पहुंचना चाहता था। मेरा निवास दफ्तर के पीछे सेक्टर-6 में है। कमरे पर पहुंच कर मैं कुर्सी पर बैठ गया ताकि इस शक्ति को और बेहतर ढंग से महसूस कर सकूं। काफी देर तक बैठा रहा, लेकिन अब वैसी सिहरन नहीं हो रही थी। मुझे नींद भी अच्छी आई। अगली रात करीब 11 बजे उनसे बात की तो उन्होंने कहा, 'चल आज तुझे कुछ और दिखाती हूं। मैं भी तैयार हो गया। पांच मिनट के भीतर मेरी आंखें स्वत: ही बंद हो गईं और एक क्षण को मां काली का रूप दिखा। बड़ी-बड़ी आंखें, खुले केश और सिर को गोल-गोल घुमाती हुई। इसके बाद पूरे शरीर में फिर वही सिहरन। मुझसे यह खुशी संवरण नहीं हो रही थी। मैं इसे किसी ऐसे शख्स से बांटना चाहता था जो मेरी बात को समझ सके। किन्तु दफ्तर में दो लोगों को छोड़कर मेरी किसी से उतनी आत्मीयता नहीं है। उनमें एक अमित हैं और दूसरी निवेदिता भारद्वाज। मैं भागकर बाहर गया, मैं बेतहाशा हंस रहा था। वह एक अद्भुत और विलक्षण खुशी थी। जि़ंदगी में पहली बार मुझे इसकी अनुभूति हुई थी। काश! मैं उस पल को शब्दों में बयां कर पाता। बहरहाल 10-15 मिनट तक मैं उसी आध्यात्मिक आनंद में रहा। अंतत: मैंने उन महिला को मोबाइल से मैसेज किया। हालांकि उन्होंने अपना नंबर मुझे दिया था, लेकिन अब तक उनसे कभी बात करने या उनसे संपर्क करने की जरूरत नहीं महसूस हुई थी। आध्यात्मिक प्रवाह में स्वत: ही मैंने उन्हें मां का दर्जा दे दिया। लगा जैसे मुझे वह गुरु मिल गया जिसकी मुझे तलाश थी। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">बचपन से ही मुझे शरीर पर भभूत लपेटे, हाथ में कमंडल और धूनी लिए जटाओं वाला एक ऐसा साधु दिखता है जो हिमालय की तलहटी में भटक रहा है। जैसे उसे किसी गुरु की तलाश हो। बहरहाल, मां काली का वह रूप दो दिन तक मुझे रोमांचित करता रहा। अब मैं सोता तो सीधे नींद पूरी होने पर ही उठता। इस दौरान यदि किसी को फोन भी आया तो उससे बात करके फिर सो जाता, जबकि पहले ऐसा नहीं था। मुझे सदैव इस बात का डर रहता था कि कोई फोन न कर दे, क्योंकि एक बार आंख खुलने के बाद मेरी नींद ही उचट जाती थी। मेरा ब्लड पे्रशर भी आश्चर्यजनक ढंग से नॉर्मल हो चुका था। पहले बात-बात पर दुर्वासा की तरह क्रोध करने वाला मैं अब लोगों की बात सुनता। इसी तरह नवरात्र के पावन नौ दिन बीत गए। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">आज विजयादशमी है। काम से निवृत्त होने के बाद मैं अपने कमरे पर पहुंचा। इससे पहले कि दरवाजा खोलता, मेरे एक साथी की आवाज कानों में पड़ी। शायद किसी से उनका झगड़ा हो रहा था। उन्होंने मुझे आवाजा दी- बाबा ज़रा आना। (मेरे सहकर्मी मुझे इसी नाम से बुलाते हैं।) मैं भाग कर उनके पास पहुंचा। आवाज सुनकर मेरे अनुज जो घर जा रहे थे, वे भी आ धमके। खैर, झगड़ा शांत करा कर हम अपने अपने घर को चले, लेकिन अनुज जि़द करने लगे कि बाबा हमारे साथ चलिए। अब तो नवरात्र भी खत्म हो गया। खाना हमारे साथ खाइए। ना-नुकुर के बाद मैं उनके साथ चल पड़ा। उनका कमरा इसी सेक्टर में मैदान के पिछले हिस्से में था। पीछे कोने पर ट्यूबवेल लगा है और दो-तीन पेड़ों को मिलाकर झुरमुट जैसा बनता है। सहसा मुझे लगा कि पेड़ों के झुरमुट में कोई है जो छिपने की कोशिश कर रहा है। वैसे मैं बता दूं- मैं वहमी नहीं हूं। यदि कोई कितना भी दबे पांव मेरे पीछे या आसपास से गुज़रने की कोशिश क्यों न करे, मुझे पता चल जाता है। मैं सोते समय भी सतर्क रहता हूं। हालांकि मैंने कुछ पल के लिए रूक कर देखने की कोशिश भी की, लेकिन अंधेरे के कारण मुझे पता नहीं चला। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">अब हमलोग कमरे में बैठे थे। मैं दरवाजे पर ही बैठा था, अचानक मेरे शरीर में सिहरन होने लगी। मैंने आंख बंद कर देखने की कोशिश की कि यह ऊर्जा किस ओर से आ रही है। मुझे एक सुनसान और गंदी सी जगह दिखाई दी। यह रेकी मास्टर की ओर से तो कतई नहीं थी। फिर भी मैंने सोचा शायद किसी और मास्टर की ओर से आ रही होगी। इसलिए मैं उसे ग्रहण करता गया। रेकी या मेडिटेशन में एक शृंखला बनती है जब हम ऐसे किसी एक व्यक्ति के संपर्क में आते हैं जो ऊर्जा का स्रोत है तो औरों से भी जुड़ जाते हैं जिनके संपर्क में अगला व्यक्ति रहता है। घंटा भर वहां बैठने के बाद मैं अपने कमरे के लिए निकल पड़ा। अभी भोर के कोई चार बज रहे थे। उसी रास्ते से निकला, इस बार लगा जैसे पेड़ से कोई मेरे ऊपर कूदा। मुझे इसका अहसास हुआ, पूरा शरीर सिहर उठा। हालांकि डर जैसा कुछ अनुभव नहीं हुआ, लेकिन हृदय की गति सामान्य से अधिक जरूर थी। मैं कमरे पर पहुंचा तो थोड़ा भावुक हो गया। फिर एक भावुक मैसेज उन महिला को कर दिया- मां! मेरे लिए सादा भोजन बनाकर रखना, मैं एक-दो दिन में आपके यहां आऊंगा और आपकी शिकायत दूर कर दूंगा। उनकी शिकायत थी कि पुरुष अभिमानी होते हैं और झुकते नहीं। इसके बाद अचानक मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। अब तक जिन्हें मैं मां कह कर संबोधित कर रहा था, अब मेरे मुंह से अनायास उनके लिए गालियां निकल रही थीं। फिर मैंने एक मैसेज किया- एक मिनट के अंदर मुझे फोन कर नहीं तो तेरा सर्वनाश कर दूंगा। आश्चर्य तो यह था कि जो बात उन्होंने मुझे बताई नहीं थी मैं उसे जानता था। ऐसा नहीं कि यह मेरी काल्पनिक उड़ान थी। कल्पना का सहारा मैं सिर्फ कविताएं या कहानियां लिखने के लिए ही करता हूं। अभी एक मिनट भी नहीं हुआ था कि मेरा पारा और चढ़ गया। फिर मैंने उन्हें फोन कर दिया। उस समय सुबह के करीब 5 बज रहे थे।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- हरामजादी, मेरे बारे में सबकुछ पूछ लिया। अपने बारे में छिपाती है?</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;"><span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">महिला</span>- क्या हुआ अर्जुन?</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- चुप! बीच में मत बोल। चुपचाप सुन।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;"><span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">महिला</span>- हां... (थोड़ी घबराहट में), बोल... मैं सुन रही हूं।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- पहले बिस्तर से उठ। मुझे देख... दिख रहा हूं।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;"><span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">महिला</span>- उठ गई। अब बता।.... नहीं, तू नहीं दिख रहा।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- सामने आ...थोड़ा और सामने। दरवाजे के पास खड़ी हो।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;"><span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">महिला</span>- दरवाजे के पास आ गई...</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- मैं दिख रहा हूं?</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;"><span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">महिला</span>- हां... तू चौकड़ी मार कर बैठा है।</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- मुझे पहचाना?</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;"><span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">महिला</span>- नहीं... तू बता। तू कौन है?</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- मैं भैरव हूं। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">इस तरह काफी देर तक मैं उस भद्र महिला को अनाप-शनाप बकता रहा। उस वक्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे कमरे में दो लोग मौजूद थे। एक बुजुर्गवार जो मुझे सोने के लिए कह रहे थे, दूसरा एक 30-32 साल का सामान्य कद काठी का एक युवक जो मुझसे थोड़ी दूर पर खड़ा था। मुझे उसका चेहरा आज भी याद है। हालांकि मैंन आज तक न तो इस शख्स से मिला था और न ही कभी देखा था। मैंने ये बातें <span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;">उन महिला </span>को भी बताईं। इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि तू कहीं कोई सिद्धि तो नहीं कर रहा था? </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">- सारी शक्तियां तो मेरी ही हैं? मुझे सिद्धि की जरूरत क्यों पडऩे लगी? भवानी मेरी मां है। मुझे बिना मांगे सबकुछ देती हैं। मुझे किसी सिद्धि की जरूरत नहीं। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">इसके बाद भी काफी कुछ बातें हमारे बीच हुई। आखिर में मैंने कहा- चल अब फोन रख... मेरे जाने का समय हो गया। सूर्योदय से पहले मुझे जाना है। इसके बाद मैंने फोन काट दिया। उस समय 6:10 बज रहे थे। इसके बाद मैं कमरे में ही इधर-उधर टहलने लगा। मुझे इस बात का पूरा आभास भी था कि आज तक मैंने ऐसा नहीं किया। अब ऐसा कैसे हो रहा है। एक अजीब बेचैनी और क्रोध था मेरे अंदर। साथ ही, ऐसा लग रहा था जैसे वह युवक मेरे पीछे-पीछे चल रहा है। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">मैंने सोने की कोशिश की, लेकिन सो नहीं सका। करीब तीन बजे जब दफ्तर पहुंचा तो रिसेप्शन से लेकर न्यूजरूम तक सभी मुझे देख रहे थे। उसी दिन अमित का जन्म दिन था। हम सभी कांफे्रंस रूम में एकत्र हुए। केक कटा, लेकिन मेरे चेहरे से रौनक गायब थी। मुझे लग रहा था कि मेरा दम घुट जाएगा इतने लोगों के बीच। एक शक्ति मुझे वहां से बाहर ले जाने की कोशिश कर रही थी। चूंकि अमित मेरे बहुत अजीज हैं, इसलिए मैं चाहकर भी वहां से नहीं हट सका। मुझे बात-बात पर क्रोध आ रहा था, लेकिन मैं बिल्कुल चुप था। मेरा दिमाग दोनों ओर काम कर रहा था। मैं स्वयं से ही जूझ रहा था, लेकिन अपना सकारात्मक पक्ष नहीं छोड़ रहा था। </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">करीब दस बजे पहला डाक एडिशन छोड़कर मैं सिगरेट पीने के लिए बाहर निकला, लेकिन कदम खुद-ब-खुद सेक्टर की ओर मुड़ते चले गए। जहां तक याद है काम के वक्त आज तक मैं दफ्तर से इस तरह बाहर नहीं गया। कैंपस या ज्यादा से ज्याद कैंपस से बाहर जीटी रोड के किनारे जरूर चला जाता हूं। हां जब मैं कॉलोनी की ओर जा रहा था मुझे अहसास हुआ जैसे कोई मुझे निर्देश दे रहा हो। मैं यह बताना भूल गया कि उन महिला और उनकी माता जी मेरे बदले व्यवहार को लेकर काफी चिंतित थीं। हालांकि मैं उन दोनों से कभी नहीं मिला था। फिर भी मेरे प्रति उनकी चिंता एक मां की ममता को दर्शाती है। उनका मुझसे बस यही लगाव था कि मैं रेकी के क्षेत्र में बहुत आगे जा सकता हूं। इसलिए वे मुझे मैसेज करती रहीं कि अर्जुन तुम कैसा महसूस कर रहे हो? लेकिन मैं हर बार उन्हें यही कहता कि मैं भैरव हूं। मुझे किसी अहसास की जरूरत नहीं है। बहरहाल मैं एक बार फिर अपनी सीट पर बैठ गया। इतना सबकुछ होने के बाद मैंने अपनी विक्षिप्तता को न तो काम पर हावी होने दिया और न ही किसी के समक्ष उजागर होने दिया। अभी मैं सीट पर बैठा ही था कि मुझे लगा जैसे कोई मुझे बुला रहा है। मैं क्रोध में तमतमाता हुआ बाहर निकला, लेकिन गेट के पास पहुंचकर सोचा.. अब बहुत हुआ... ये कौन है जो मुझे नचा रहा है? क्या बला है यह? मुझे तो कोई शक्ति कमजोर बना ही नहीं सकती। इतना ठानने के बाद मैंने सिगरेट पी और वापस न्यूजरूम में आकर काम में जुट गया। इसके बाद रात करीब 12 बजे मैंने हल्कापन महसूस किया। तब<span style="font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif;"> वो महिला भी </span>ऑनलाइन हो चुकीं थीं। उनसे फिर उसी आत्मीयता से बातचीत हुई। उन्हें बड़ी खुशी हुई। मैंने जब उनसे पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा- तेरा आत्मबल तुझे फिर से खींच लाया। पर वह क्या था? क्या तुम उसे जानते हो? लेकिन मेरा एक ही जवाब था- ये तो मैं खुद नहीं जान पाया। हालांकि वे कहती हैं कि हो सकता है कि यह किसी तरह की क्लीनजिंग हो सकती है। लेकिन मैंने जो झेला उसे मैं ही जानता हूं। मुझे इसका पूरा अहसास था कि मेरा मस्तिष्क किसी शक्ति से लगातार जूझ रहा है। ऐसा प्रतीत होता था जैसे दिमाग की नसें फट जाएंगी। मैं किसी भी पल पागल हो जाऊंगा। उस रात मैं सीधे अपने कमरे पर गया। पीछे से मेरे अनुज आ धमके और मुझे अपने यहां ले जाने की जि़द करने लगे। काफी देर तक मैं टालता रहा, लेकिन अंतत: मुझे उनकी जि़द के आगे झुकना पड़ा। दरअसल मैं डर रहा था, उस रात के वाकये से। मैं इस बात के लिए डर रहा था कि कहीं फिर मैं उस शक्ति के चंगुल में न फंस जाऊं। यह विचार मन में आते ही मैंने ठान लिया, अब तो चलना ही पड़ेगा। मैं उन्हीं रास्तों से उनके कमरे पर गया। उसी तरह दरवाजे पर बैठा। कुछ देर बाद फिर मेरे शरीर में सिहरन हुई। लगा जैसे कोई मुझ तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है। मैंने आंख बंद की तो फिर वही सुनसान दृश्य दिखा। ध्यान लगाया तो लगा जैसे कोई सफेद आकृति मेरे ठीक ऊपर छत पर बैठी है। यह आकृति कोई और नहीं उसी युवक की थी जो मुझे कमरे पर दिखा था। (ऐसा लिखते वक्त अभी भी मेरे शरीर में सिहरन हो रही है।) मैं झटके से बाहर निकला और ऊपर देखा। फिर लड़कों से पूछा- यह बताओ पीछे वाले कमरे की छत पर कोई पीपल का पेड़ है क्या?</span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">उन्होंने कहा- हां, है।... लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं। मैंने कहा- इस घर में बाथरूम और टॉयलेट के बीच मुझे नकारात्मक जगह दिख रही है। हालांकि यह पूरा घर ही नकारात्मक है। फिर मैं छत पर भी गया। उन लड़कों से कहा- यह घर ठीक नहीं है। तुम लोग हमेशा मदहोशी में ही रहोगे इस घर में। कोई रूटीन नहीं होगा। जैसे-तैसे ही रहोगे। यदि बिना वजह चिंता से दूर रहना है तो इस मकान को छोड़ो। फिर मुझे ध्यान आया करीब एक साल पहले इसी गली में एक लड़के ने ख़ुदकुशी कर ली थी. </span><br style="color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;" /><span style="color: #333333; font-family: "arial" , "tahoma" , "helvetica" , "freesans" , sans-serif; font-size: 14px; line-height: 20.2859992980957px;">उन लोगों ने मेरी बात मानी और कुछ दिनों में ही उन्होंने कमरा शिफ्ट कर लिया। कमरा बदलते ही उनकी दिनचर्या में भी बदलाव आया। राहुल भी इस बात को मानता है कि उनके रहन-सहन में काफी बदलाव आया। लेकिन मुझे आज तक यह पता नहीं चल पाया कि आखिर वह शक्ति क्या थी। हां, सिर्फ अमित ही थे जिन्होंने मेरे भीतर आए एकदिवसीय बदलाव को नोटिस किया था। उनके मुताबिक मेरी आंखें अप्रत्याशित तरीके से लाल थीं, जिसमें सिर्फ क्रोध ही क्रोध समाया हुआ था।</span></span></div>
nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-78662927611652983212014-10-08T11:25:00.001-07:002014-10-18T10:47:36.161-07:00मैं भैरव हूं-2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वर्ष 2009। नवरात्र। मैं एक मंत्र पर प्रयोग कर रहा था। मंत्र सदैव ही मुझे आकर्षित करते हैं। नवरात्र के आखिरी दिन मैं मेडिटेशन कर रहा था। मुझे सागर के किनारे एक पहाड़ी दृश्य दिखा। मैं एक अबोध शिशु के रूप में दिखा। ऊंचे चट्टान पर बैठे एक नंग धड़ंग व्यक्ति ने मुझे गोद में ले रखा था। वह शख्स कोई मामूली इनसान नहीं था। इस बात का अहसास मुझे चट्टान के नीचे करबद्ध मुद्रा में खड़ी भीड़ से हुआ। मुझे नहीं मालूम जिनकी गोद में मैं था वह कौन थे। यह वह दौर था जब मैं भयंकर पीठ और कमर दर्द से परेशान था। मुझे याद है कि 6-8 माह तक मैं पेट के बल सोया, क्योंकि पीठ के बल सोता तो उठ नहीं पाता था और पूरी पीठ सुन्न हो जाया करती थी। इसी तरह करवट लेकर भी नहीं सो सकता था। दफ्तर के सहकर्मी मुझे मोटरसाइकिल पर बैठा कर धीरे-धीरे दफ्तर ले जाते और देर रात को घर छोड़ने आते थे। इस सेवाभाव और प्रेम के लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूं।<br />
मुझे लगा जैसे यह मेरी कल्पना है। सुबह हो चुकी थी। इसलिए सोने की कोशिश करने लगा। मैं पेट के बल लेटा तो नींद नहीं आई। सोचा मेडिटेशन करते करते ही सो जाऊंगा। मुझे यही उचित लगा। ध्यान की अवस्था में मुझे महसूस हुआ कि वही बुजुर्ग सज्जन मेरी पीठ सहला रहे हैं। मेरे पैर दबा रहे हैं। मेरे सिर पर हाथ फिरा रहे हैं। उनके साथ एक और कोई युवक था जो 30-32 साल का था। वह मेरे क़रीब आने के लिए अवसर की तलाश में था, लेकिन बुजुर्ग सज्जन की मौजूदगी के कारण वह लाचार था। ख़ैर, काफी देर तक सज्जन मुझे पितृवत स्नेह से सुलाने का प्रयास करते रहे। फिर मुझे कब नींद आ गई, पता नहीं चला। उसके एक दो दिन बाद मुझे अहसास हुआ कि मेरा दर्द गायब है! इसमें कोई संशय नहीं कि उन्होंने मेरी हीलिंग की। मुझे दर्द से निजात दिलाया। <br />
इस घटना के तीन साल हो चुके। वर्ष 2012-13 की बात है। मेरी एक मित्र को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने एक संत की तस्वीर मुझे ई-मेल से भेजी। मैंने तस्वीरें देखीं, लेकिन पहचान नहीं पाया। इस तरह कुछ माह और बीत गए।<br />
एक दिन की बात है। मैं दफ्तर में काम कर रहा था। काम करते समय अचानक मुझे वही दृश्य दिखा। उसी नंग धड़ंग शख्स की गोद में अबोध शिशु की तरह लेटा हुआ। मुझे सहसा ख़्याल आया कि मेरी मित्र ने जो तस्वीरें भेजी थीं उसे देखना चाहिए। मैंने तत्काल ई-मेल पर उन तस्वीरों को ढूंढ़ा। देखा तो आश्यर्च की सीमा न रही। वही कद-काठी। वही चेहरा। वही महापुरुष। पता चला वह अक्कलकोट महाराज अर्थात् स्वामी समर्थ महाराज के नाम से जाने जाते हैं। एक अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर मुझे तीन चार साल बाद मिला।<br />
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nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-52103247696615925372014-02-18T09:04:00.003-08:002014-02-18T09:04:15.336-08:00शनि का घमंड टूटा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बहुत समय पहले की बात है। शनिदेव ने लम्बे समय तक भगवान शिव की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक दिन शिवजी प्रकट हुए और शनि को वरदान मांगने को कहा।<br />
शनि बोले- ‘भगवन! ब्रह्माजी सृष्टि के रचयिता हैं, विष्णुजी पालनकर्ता और आप इन दोनों में संतुलन बनाए रखते हैं, किन्तु सृष्टि में कर्म के आधार पर दंड देने की व्यवस्था नहीं है। इसके कारण मनुष्य ही नहीं, अपितु देवता तक भी मनमानी करते हैं। अत: मुझे ऐसी शक्ति प्रदान कीजिए ताकि मैं उद्दंड लोगों को दंड दे सकूं।’<br />
शनिदेव के विचार से शिवजी बहुत प्रभावित हुए और उन्हें दंडाधिकारी नियुक्त कर दिया। वरदान प्राप्ति के बाद शनि घूम-घूम कर ईमानदारी से कर्म के आधार पर लोगों को दंडित करने लगे। वह अच्छे कर्म पर परिणाम अच्छा और बुरे कर्म पर बुरा परिणाम देते। इस तरह समय बीतता गया। उनके प्रभाव से देवता, असुर, मनुष्य और समस्त जीवों में से कोई भी अछूता नहीं रहा। कुछ समय बाद शनि को अपनी इस शक्ति पर अहंकार हो गया। वह स्वयं को सबसे बलशाली समझने लगे।<br />
एक बार की बात है। रावण के चंगुल से सीता को छुड़ाने के लिए वानर सेना की सहायता से जब राम ने सागर पर बांध बना लिया, तब उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्होंने हनुमान को सौंपी। हमेशा की तरह शाम को शनि भ्रमण पर निकले तो सागर सेतु पर उनकी निगाह पड़ी। उन्होंने नीचे उतर कर देखा तो पाया कि हनुमान सेतु की रखवाली की जगह ध्यानमग्न बैठे थे। यह देख कर शनि क्रोधित हो गए और हनुमान का ध्यान भंग करने की कोशिश करने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हनुमान पूर्ववत् ध्यान में डूबे रहे। इस पर शनि का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने हनुमान को बहुत भला-बुरा कहा, फिर भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। आखिर में शनि ने उन्हें युद्ध की चुनौती दी तब हनुमान विनम्रता से बोले- ‘शनिदेव! मैं अभी अपने आराध्य श्रीराम का ध्यान कर रहा हूं। कृपया मेरी शांति भंग न करें।’ लेकिन शनि अपनी चुनौती पर कायम रहे। तब हनुमान ने शनि को अपनी पूंछ में लपेट कर पत्थर पर पटकना शुरू कर दिया। शनि लहुलूहान हो गए। हनुमान उन्हें लगातार पटकते ही जा रहे थे। अब शनि को अपनी भूल का अहसास हुआ कि उन्होंने हनुमान को चुनौती देकर बहुत बड़ी गलती की। वह अपनी गलती के लिए माफी मांगने लगे, तब हनुमान ने उन्हें छोड़ दिया।<br />
शनि के अंग-अंग में भयंकर पीड़ा हो रही थी। यह देख कर हनुमान को उन पर दया आई और उन्होंने शनि को विशेष प्रकार का तेल देते हुए कहा- ‘इस तेल को लगाने से तुम्हारी पीड़ा दूर हो जाएगी। लेकिन याद रखना, फिर कभी ऐसी गलती दोबारा मत करना।’<br />
‘भगवन! मैं वचन देता हूं, आपके भक्तों को कभी कष्ट नहीं दूंगा’- शनि ने कहा।<br />
उसी दिन से शनिदेव को तेल अर्पित किया जाने लगा। मान्यता है कि जो भी व्यक्ति शनि को तेल अर्पित करता है, वह उसका कल्याण करते हैं।<br />
<br />
(नंदन में प्रकाशित)</div>
nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-60837777151820322842012-12-02T09:50:00.000-08:002015-03-28T12:56:38.086-07:00मोनू की शादी डिमांड<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
<div>
डेढ़ साल का हमारा
मोनू एक दिन विचित्र फरमाइश कर बैठा. वैसे तो हर बात पर उसके पांच सवाल
होते और हर सवाल का जवाब उसे चाहिए होता था. इस बार उसने कोई सवाल नहीं
किया...बस एक छोटी सी माँग रख दी. बच्चे ने पहली बार कुछ माँगा उसे मिलना
ही चाहिए...लेकिन अभी मांग सुनिए...उसने सिर्फ़ शादी कहा. मासूम था
....पूरा बोल नहीं सकता था. मामा ने समझा बच्चा कोई सजा हुआ घर देखना
चाहता है... लेकिन अभी शाम के चार ही बजे थे और अँधेरा होने में कम से कम २
घंटे से अधिक का वक़्त था. फिर भी मामा उसे मोहल्ले में घुमाता रहा...
उसे हर वह घर दिखता रहा...जिनमें छोटे छोटे झालर लगे हुए थे. दीवाली बीते
अभी पांच ही दिन हुए होंगे. लेकिन मोनू हर बार घर की सजावट चुपचाप देख
लेता और उंगली से आगे चलने का इशारा कर देता. मतलब साफ़ था... भांजे को वह
नहीं मिल रहा जो उसे चाहिए. दो घंटे घूम घुमा कर मामा भांजे को लेकर एक
चौराहे पर खड़ा हुआ. मोनू ने हरबार की तरह इस बार भी उंगली सामने तान दी...
लेकिन मामा सोच रहा था... इसकी फरमाइश पूरी करने के चक्कर में रात हो
जाएगी. इसे सस्ते में निपटाना होगा. इसके लिए सोचना ज़रूरी था...और सोचने
के लिए सिगरेट चाहिए थी. अब मामा की लाचारी यह कि इस नकलची बच्चे के सामने
सिगरेट भी नहीं पी सकता... कहीं घर में इसने ऐसी नक़ल की तो सब यह सोचकर
इसके पीछे ही पड़ जायेंगे कि बच्चे ने नया कुछ सीखा है...और उसी से पूछेंगे
कि ...मोनू बताओ ... ऐसे कौन करता है? कोई पूछता ...मामा?...बच्चा तो शाणा
था ही. उंगली उठाने में भी परहेज नहीं करता था... खैर...मामा सिगरेट कुछ
इस तरह पी रहा है...<br />
मोनू...सामने देखो- गाय .....और एक कश. मोनू
...वो देखो- डौगी... फिर एक कश. लेकिन बच्चा होनहार था... उसने ताड़ लिया
कि मामा मुझे पोपट बना रहा है... अबकी बार मामा ने कहा... मोनू ...देखो
-कैट. मोनू ने कैट तो देखा ही...मामा के मुह में एक सफ़ेद डंडी और उस से
निकलता धुंआ भी देखा... उसने भी तुरंत नक़ल मारते हुए सुट्टा लगाया...मामा
की हालत खराब! झट से सिगरेट फेंकी और बच्चे के दिमाग में अभी अभी गयी नयी
सीख बाहर निकालने में जुट गया... चलो आज तुम्हे गाड़ी दिखाते हैं...
लेकिन बच्चे ने फिर वही पुराना राग अलापा... शादी. मामा ने अपने हर दोस्त
से पूछा...बता कहीं कोई शादी है... सब पूछते -क्यों? मामा कहता ...भांजा
आज शादी के मूड में है... मोहल्ले में हंगामा मच गया...लाडले भांजे का
मामला जो था... आठ बज गए... हर कोई आता और मोनू को देख कर कहता...आज नहीं
मानेगा....मोनू था कि हर अगले मिनट तकादा करता.... मम्मा ...छादी...
आखिरकार रात को दस बजे दूसरे मोहल्ले से बैंड बाजे की आवाज़ आई... मोनू के
कान खड़े हो गए...इधर उधर देखा और जैसे घोड़े को एड लगाते हैं....कुछ उसी
अंदाज़ में शरीर को आगे धकेलते हुए आवाज़ की दिशा में ऊँगली तान दी. बरात
और उसमें मस्ती में नाचते लोगों को देखकर मोनू खुश! जब बारात देख ली तब
कहा- चलो... <br />
<br />
<br />
by <a data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=1061794357" href="http://www.facebook.com/nagarjuna.singh">Nagarjuna Singh</a> on Wednesday, April 27, 2011 at 11:15pm<br />
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<br /></div>
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nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-35220206078637205302012-12-02T09:43:00.000-08:002012-12-02T09:44:27.987-08:00????<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
पापा कहते थे... गंदे लोग सूअर की तरह होते हैं. उनसे उलझने का
मतलब कीचड़ में उतरना. सूअर को कीचड़ बेहद प्रिय है. वह तो उसमें नहाकर
आनंदित होगा...लेकिन तुम्हें उबकाई आएगी. कितना सच कहा था! आज के दौर में
राजनीति से ज्यादा गंदगी और कहीं नहीं हो सकती. यहाँ आपको भ्रष्टाचार,
दुराचार और यौनाचार में आकंठ डूबे छिछोरे लम्पट नेता तो मिल ही जायेंगे.
हालांकि मैं यह भी कहना चाहूँगा कि राजनीति में सभी ऐसे नहीं हैं. अभी कुछ
दिन पहले ही मेट्रो में मुझे एक सज्जन मिले. एक निहायत सुन्दर महिला के
साथ थे. काफी देर तक मुझे घूरने के बाद मेरे पास आये और बोले- आप अप्पुजी
हैं न? जक्कनपुर वाले. मेरे बारे में किसी का इतना कह देना ही काफी
है...क्योंकि पूरी पत्रकारिता करियर में किसी को भी मेरा यह नाम और मेरे
घर का पता नहीं चल पाया. पटना में भी बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं कहाँ
रहता हूँ. कई तो बरसों से हमारे परिवार को जानते हैं...लेकिन उनमें भी कई
लोग नहीं जानते कि जिस इंसान के आगे वो नतमस्तक होते हैं और जिन्हें वे
अपना आदर्श मानते हैं...वो मेरे पापा थे. इसका सीधा कारण यह है कि मैंने
कभी किसी को अपने बहुत करीब नहीं आने दिया.<br />
खैर...मैंने कहा- कहिये.
छूटते ही जनाब ने कहा- मुझे नहीं पहचाना! मैं वही हूँ जो आपके कोप का
भाजक बन चुका है. मैंने कहा - मैं नहीं समझा. पूरा परिचय दीजिये. तो जनाब
बोले- आप काफी दुबले हो गए हैं... लेकिन हमारे मन में तो आपकी वही पुरानी
छवि बसी है. एक फाइटर वाली. मैं थोड़ा संभल गया- अतीत के पन्ने से अचानक एक
किरदार उभर कर मेरे सामने खड़ा हो गया था और पहेलियाँ बुझा रहा था. उसके
साथ वाली महिला उतने ही कौतुहल से मुझे निहार रही थी. मेट्रो में सफ़र कर
रहे लोग भी माज़रा समझने की कोशिश कर रहे थे. मैंने झुंझला कर कहा- साफ़
साफ़ बताएँगे तो आगे बात करूँ...तब जनाब बोले- दरअसल बात 90 की है... कॉलेज
का पहला दिन था... अगली सीट पर बैठने को लेकर... बस इतना कहते ही मुझे
पूरा किस्सा याद आ गया. दरअसल, बात यह थी कि तब इस लड़के ने मुझे तमंचा
दिखाकर मुझे पीछे कि सीट पर जाने को कहा था. लेकिन मैं वहीँ बैठा रहा.
मेरे साथ जो लड़का था वह डर कर भाग गया. फिर इसके दोस्तों ने लात मारकर उस
डायस को तोडना शुरू किया. मैं मना किया तो एक लड़का बाहर से एक ईंट ले
आया और उसे हाथ से तोड़ने की कोशिश करने लगा... तो कोई हॉकी स्टिक सामने
घुमाने लगा...कोई साईकिल की चेन. यह सब मुझे डराने के लिए था. मैं ईंट
तोड़ने की कोशिश कर रहे लड़के के हाथ से ईंट ले लिया और ज़मीन पर रखकर एक ही
झटके में हाथ से तोड़ दिया...और उसके छोटे टुकड़े को चुटकी से मसलते हुए
... उन सभी को यह एह्साह दिलाने की कोशिश की कि तुम सबका भी यही हश्र
होगा.<br />
अभी मैं अतीत भ्रमण ही कर रहा था कि जनाब ने कहा... भाई साहब!
मुझे आज भी छाती में दर्द होता है...तब आपकी याद आती है. उसके बाद पूरी
रामायण सुना दी. लोग यही सोचकर विस्मित थे कि मुझ जैसा निरीह सा दिखने
वाला प्राणी भी इतना खतरनाक हो सकता है! अपनी धुलाई की कहानी वो बड़ी
गरिमा के साथ सुना रहे थे.... मैंने मना किया कि क्यों मेरी इज्जत उतार
रहे हो तो बोले- प्रभु... संकोच तो मुझे होना चाहिए कि मैं अपने मुंह से
अपनी पिटाई की बात कह रहा हूँ...आपने तो मुझे पीटा था. मेरे साथ जो मित्र
थे वह भी थोड़े उतावले हो रहे थे. इशारे में मयूर विहार की बजाय प्रगति
मैदान ही उतरने को कह रहे थे. फिर न चाहते हुए भी मैंने पूछ लिया- (पहले
मन में पूछा, लंगूर के हाथ में अंगूर उसी का है?) ये कौन हैं (महिला की ओर
इशारा करते हुए). उन्होंने कहा- ये मेरी पत्नी हैं. इसके बाद वो पूछने
लगे- कहाँ रहते हैं? कहाँ काम करते हैं? अब आप लिखते हैं कि नहीं? लेकिन
मैं चुप रहा. वैसे भी अब कोई पास आना चाहता है तो खुद ही दूर जाने का मन
करता है. वो सज्जन तो नॉएडा गए...हम जब मयूर विहार उतरे तो मित्र ने पूछा-
इसे कैसे जानते हैं? मैंने कहा- सुना नहीं... इसकी हरकत के लिए इसका कैसे
भूत बनाया था. अब उस व्यक्ति के बारे में अपडेट जानकारी देने की बारी
मित्र की थी. उसने कहा- बाबा... ये बहुत बड़ा दलाल है. अपनी राजनीति
चमकाने के लिए ये नेताओं को लड़कियां सप्लाई करता है. फिर कहा कि कभी
एआईसीसी जियेगा...इधर उधर मंडराता दिख जायेगा. ये उसकी बीवी नहीं है...
रोज़ किसी नयी लड़की के साथ मिल जायेगा...आजकल नॉएडा में एक शानदार
डुप्लेक्स खरीदा है इसने. मेरे मुंह से एक अलंकार निकला... जाने दे
मा.....को.<br />
<b>दूसरी घटना...</b><br />
लगभग ९५-९६ की बात
है... उस समय इन्द्र कुमार गुजराल राज्यसभा में जाने कि जुगत में थे...
लालू यादव इसमें उनकी मदद कर रहे थे या गुजराल साहब मदद माँगने के लिए
पहुंचे थे...ऐसा कहने के पीछे वजह यह है कि मैं नेताओं से दूर ही रहता
हूँ... मेरे कुछ परिचित लोग राजनीति के शिखर पर पहुंचे...लेकिन मैंने
हमेशा उनसे दूर ही रहा. हाँ तो गुजराल साहब काफी समय तक हमारे मोहल्ले में
रहे...हर रोज़ सुबह वो सुशील नाई के सैलून के बाहर टेबल पर बैठे रहते थे.
मैं सुबह की सैर के बाद लौटते समय कुछ देर उन्ही के साथ बैठ जाता था. कई
दिन ऐसे ही बीते...एक दिन मैंने पूछ लिया- आप तो बड़े उद्योगपति
हैं...फिर यहाँ... फिर उनके बारे में पूछा...लेकिन उन्होंने मुझे एक बच्चे
से ज्यादा कुछ नहीं समझा. मैं था भी बच्चा. वो कहाँ बुज़ुर्ग...अलबत्ता वो
मुझसे ही पूछते कि कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? कहाँ पढ़ते हो? एक
दिन उन्होंने अपनी इच्छा भी जताई कि वो मेरे पिताजी से मिलना चाहते
हैं....लेकिन मैं ही नहीं ले गया. मैंने थोड़े समय में और जितनी बुद्धि थी
उसके हिसाब से जितना भी मैंने उन्हें जाना...मेरे मन में उनके लिए आज भी
वही सम्मान है. कई बार तो जब वो बोलते तो मुझे सुनाई ही नहीं देता था...
उनका लहजा बड़ा विनम्र था... पैसे का कोई घमंड नहीं... कुछ समय बाद उनके
सितारे बुलंद हुए और शायद अप्रैल १९९७ में प्रधानमन्त्री बन गए. मोहल्ले
का हर शख्स अफ़सोस करता था...काश मैंने गुजराल साहब से नजदीकी बनायी होती!
एक दिन भैया और माँ ने हँसते हुए कहा...तेरी पहुँच तो अब तो सीधे
प्रधानमन्त्री तक हो गयी है! लेकिन मैंने हँस कर बात टाल दी....<br />
<br />
by <a data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=1061794357" href="http://www.facebook.com/nagarjuna.singh">Nagarjuna Singh</a> on Friday, April 29, 2011 at 12:05am </div>
nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-36755601047711468522012-12-02T09:36:00.001-08:002012-12-02T09:36:26.279-08:00निश्चय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="mbl notesBlogText clearfix">
<span><div>
कमरे में बैठा रानू
छत को अपलक निहार रहा है. मन में सवालों के बाढ़ उमड़ घुमड़ रहे हैं. कई
रातों से सोया नहीं था फिर भी उसे नींद नहीं आ रही थी. दो दिन से कुछ खाया
भी नहीं... खाना बना कर सोचा था कि खायेगा, लेकिन अब भूख भी नहीं थी.
मोबाइल हाथ में लिए उसे उछाल रहा है...अचानक घंटी बजती है...बजती ही रहती
है.. कई बार बजने के बाद मोबाइल मूक बन गया था...थोड़ी देर बाद फिर जब
मोबाइल की घंटी बजने लगी तो उसने उठाकर देखा. माँ का फोन था. उसने बात कर
लेना ही मुनासिब समझा. <span>माँ </span> से बात करने के बाद वह और शिथिल हो गया. शायद
उनकी तबियत ठीक नहीं थी. थोड़ी देर बाद बिस्तर से उठा और बाहर सिगरेट पीने
बैठ गया.<br />
रानू के हालात ठीक नहीं थे. जिंदगी का हर क़दम पर वह अब तक
जिस शाइस्तागी से वह सामना करता आया था ...उसमें अब वह बात नहीं दिख रही.
संघर्ष करते करते वह थक गया है. एक बेचैनी, अकुलाहट, असंतोष और विद्वेष
उसके मन में पल रहा है. जिंदगी अज़ाब हो गयी है. अब वह जीना नहीं चाहता...
जिए भी तो किस के लिए? माँ-बाप, भाई-बहन, प्रेमिका, दोस्त सब तो पहले ही
छूट गए थे ...और अब नौकरी भी छूट गयी है. कई दिनों से उसके मन में एक उथल
पुथल मची है... वह जिंदगी से ऊब गया है...इस निर्मम संसार में अब उसका दम
घुटता है... परेशानियां इतनी बढ़ गयी हैं कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही
हैं. हालात ने उसे तोड़ दिया है....अब उसे जिंदगी नीरस और बोझ जैसी लगती
है. वह मरना चाहता है...लेकिन यहाँ भी एक सवाल पीछे पड़ा है.... अगर
ख़ुदकुशी की तो बीमा का पैसा उसकी बीमार माँ को नहीं मिलेगा. फिर झुंझला कर
सिगरेट फेंक देता है और सड़क की ओर चल देता है... वह सोच रहा है...कैसी है
यह ज़िन्दगी...? न जी सकता है...और न ही मर सकता है. इसी उधेड़बुन में रानू
पार्क तक पहुंचा.सुबह होने तक घास पर लेटा रहा. रात फिर आँखों में बीत
गयी...दिन निकल आया. लोग पार्क में सुबह की सैर के लिए आने शुरू हो गए थे.
रानू उठा और बाहर निकल कर सड़क पर आ गया. सड़क पार करने के लिए अपने दायीं ओर
देख ही था की कहीं से तेज़ आवाज़ आई. देखा तो बायीं ओर सड़क के उस पार एक
कार ने साइकिल वाले को टक्कर मार दी थी. लेकिन उसने यह जानने की कोशिश नहीं
की कि साइकिल वाले को कितनी चोट लगी? जिंदा भी है या मर गया? सीधा अपने घर
की ओर चलता रहा. अचानक उसके मन में ख़याल आया....अगर मेरा भी एक्सीडेंट हो
जाये तो!!!!! हाँ...ऐसा हो जाये तो उसकी माँ को उसके मरने के बाद बीमा का
पैसा भी मिल जायेगा...वह वापस पलटा ..लेकिन दो क़दम चलने के बाद रुक गया.
फिर एक सवाल ... अगर एक बार माँ को देख लेता तो मन में यह मलाल तो नहीं
रहता की माँ को देखा नहीं. फिर वह घर की ओर चल पड़ा. कमरे में बैठा घंटों
सोचता रहा... किसी बड़ी गाड़ी के अचानक आगे जाकर मरना ठीक रहेगा. कार और
छोटी गाड़ियों से टकराने पर क्या पता मरुँ न मरुँ... अगर हाथ पैर ही टूटा तो
बिस्तर पर पड़ा रहूँगा... अगर कोई अंग खराब हो गया तो जिंदगी भर के लिए
अपाहिज हो जाऊंगा. फिर उसने सोचा... वैसे ट्रेन के आगे जान देना सबसे आसान
है... मरने की पूरी गारंटी होती है. लेकिन मरने के बाद भी अगर कोई पहचान
नहीं पाया तो .... माँ को बीमा का पैसा कैसे मिलेगा???? हाँ ... सात लाख...
बीमा कंपनी वाले माँ से मेरे मरने का सबूत मांगेंगे तो वह बेचारी कहाँ से
लाएगी सबूत?<br />
उसने अब ठान लिया है कि अब वह किसी बाईपास पर बस या ट्रक
के आगे कूद कर अपनी जान दे देगा. फिर एलआईसी प्रीमियम का रसीद देखने
लगा.... उसमें लिखी तारीख पर नज़र पड़ते ही अचानक उसे याद आया कि अप्रैल में
ही उसे बीमा का प्रीमियम जमा करना था. मतलब मरने से पहले उसे प्रीमियम जमा
करना ही होगा. ११ बज चुके थे... रानू तैयार होकर बिना खाए पिए बीमा की
किस्त जमा करने के लिए निकल पड़ा. उसे दो काम करने हैं- पहले ए टी एम से
पैसे निकाल कर उसे एल आई सी ऑफिस में प्रीमियम जमा करना है... फिर वहाँ से
टिकट कटाने जाना है. दुनिया से जाने का टिकट माँ से मिलने के बाद कटाएगा...
लेकिन मरेगा ज़रूर...उसने पक्का निश्चय कर लिया है...<br />
<br />
by <a data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=1061794357" href="http://www.facebook.com/nagarjuna.singh">Nagarjuna Singh</a> on Wednesday, May 4, 2011 at 11:44pm · </div>
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nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-76573995670706925932012-12-02T09:27:00.001-08:002012-12-02T09:27:44.858-08:00सवालों से डरता हूँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span>आज मैंने आसमान को देखा. यह पहले जैसा नहीं है. मेरा आकाश विस्तृत था
जिसमें मोतियों सरीखे तारे जगमगाते थे. मैं बैठना चाहा, लेकिन ज़मीन नहीं
मिली. यहाँ से तो कंक्रीट की गगनचुम्बी इमारतें ही दिखती हैं. मेरे हिस्से
की ज़मीन कहाँ गयी? कहाँ गयी मेरी छत जिसमें लटकते तारों को गिनकर सो जाया
करता था? तब न जाने कितने तारे गिन लेता था...अब तो इन इमारतों की मंजिलें
भी नहीं गिन पाता. इस शहर की भीडभाड़ में मैं अपने हिस्से की नींद, धैर्य,
भावनाएं और अब संवेदनाएं भी खो चुका हूँ. बंद कोठरी में छत से लटकती मकड़ी
की कुछ जालें एहसास कराती हैं कि इन्हें महीनों से नहीं हटाया. रोज़ सोचता
हूँ आज इन्हें साफ़ करूँगा ...लेकिन रोज़ किसी उलझन में उलझ कर रह जाता हूँ.
जैसे कोई पतंगा मकड़ी की जाल में फंस कर छटपटा कर दम तोड़ देता है... मैं
भी चाहकर निकल नहीं पाता हूँ. यहाँ हर क़दम पर प्रपंच है...छल है... फरेब
है...यहाँ हर हाथ में खंजर घोंपने को तैयार है ... कह नहीं सकते किस आँख
को कैसी तलाश है. यहाँ इंसान से पहले इंसानियत मर जाती है... मैं भी बदल
गया हूँ अब मेरी संवेदनाएं फिर भी जीवित हैं.. या कहें बचा रखी हैं...पता
नहीं किस रोज़ माँ पूछ बैठे तेरी आँखों का पानी क्यों सूख रहा है? और न
जाने ऐसे कितने ही सवाल जिसके जवाब नहीं है मेरे पास... डरता हूँ तो बस
सवालों से... न जाने कौन कब कोई सवाल मेरी ओर उछाल दे.</span><br />
<br />
<span>by <a data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=1061794357" href="http://www.facebook.com/nagarjuna.singh">Nagarjuna Singh</a> on Monday, April 25, 2011 at 11:53pm </span></div>
nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-50835919250773516602012-05-31T08:26:00.001-07:002015-04-02T07:59:28.158-07:00दरोगा जी का न्याय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दारोगा का न्याय<br />
<br />
धनिया रजक पगलाया हुआ बदहवासी में भागा जा रहा है। लगता है जैसे उसके पिछवाड़े में किसी ने चटाई बम लटका दिया हो। लल्लन पासी पीछे से आवाज देता रहा, लेकिन धनिया सुने तब तो। बाबू साहेब की सामने वाली गली से रेलवे लाईन की तरफ भागा जा रहा है। छोटका ईसरी महतो के घर के पीछे गोली (कंचा) खेल रहा था। बाप को भागता देख कर वहीं से चिल्लाता हुआ घर की ओर दौड़ा, ‘मैया, देखो... बाबू कहां जा रहा है?’<br />
धनिया की पत्नी सुखनी शायद चूल्हा-चौकी में जुती हुई थी। छोटका भागता हुआ सीधे रसोई में उसके पास गया और बोला, ‘मैया... मैया...’<br />
छोटका बात पूरी भी नहीं कर पाया कि सुखनी नन्हीं सी जान पर फट पड़ी। बोली, ‘क्या है रे! ... आगे भी बोलेगा करमजले।’<br />
‘मैया, बाबू लाईन की तरफ गया। पीछे-पीछे लल्लन चच्चा भी। कितना बुलाया... लेकिन बाबू नहीं रूका।’- छोटका एक सांस में बोल गया।<br />
सुखनी- ‘क्या बकता है रे (विस्मित और संशय भरी निगाह से देखते हुए)। ई पगलेट हमको चैन से न तो जीने देगा और न ही मरने देगा। इतना तो समझा लिया कि बैसाख नंदन अब न लौटेगा।... जब था तब तो उसे चैन से रहने न दिया। अब पगलाया फिरता है। (छोटका को देखते हुए) तनिक जा के देख... मुनिरका जादव खटाल* में है क्या। ... मिले तो कहना मैंने बुलाया है। रोड पर तमाशा मत देखने लगना। जल्दी से साथ ले के आना। अब भाग के जा... ’<br />
बेटे को मुनिरका यादव को बुलाने भेज कर सुखनी माथा पर हाथ रखकर चौखट पर ही बैठ कर सोच में डूबती चली गई।<br />
पिछले साल अगहन की बात है। छोटका के बाबू बैसाख नंदन के साथ गंगा घाट पर कपड़ा धोने गए थे। मरदाना खुद तो कपड़े धोने लगा और बैसाखी को धूप में छोड़ दिया। सुबह बेचारे को कुछ खाने भी नहीं दिया। अगर खा कर गया होता तो मालिक को छोड़ कर ऐसे थोड़े न भाग जाता कहीं। कितनी बार कहा, अजी! कभी स्नेह से बैसाखी के देह पर हाथ भी फिरा दिया करो। बेचारा तुम्हारे साथ दिनभर देह धुन कर काम करता है। उसे ढंग से खाने दिया करो। ...पता नहीं कहां, किस हाल में होगा बेचारा! आधा साल गुजर गया, तब से छोटका के बाबू उसकी खोज में पता नहीं कहां-कहां मारे-मारे फिर रहे हैं। क्षण का चैन नहीं इस मरद को। बैसाखी क्या गया, काम-धंधा सब चौपट हो गया। ग्राहक कपड़े दे जाता है, लेकिन धोए कौन! मैं चौकी-चूल्हा करूं, बच्चे सम्भालूं कि घाट पर कपड़े धोने जाऊं। यह सब सोचते-सोचते सुखनी दिन-ब-दिन घर के बिगड़ते अर्थशास्त्र में उलझती चली गई। घर में आटा-चावल खत्म है। खाने के लाले पड़ रहे हैं। बनिया भी उधार देने से साफ मना करने लगा है। कहता है पिछला हिसाब चुकता करो। तीन महीना हो गया, बकाया दिया नहीं और मुंह उठा कर राशन लेने आ गए। सुखनी की आंखों से दो बूंद आंसू गाल पर ढरक गए। ... लेकिन पेट थोड़े न मानता है... इसे तो दोनों समय खाना चाहिए, नहीं तो मरोड़ उठता है। दो दिन पहले छोटका आठ आने का फुलौना** खरीदने के लिए जोड़-पगहा*** तुड़ा रहा था। पूरा एक घंटा लोट-लोट कर रोता रहा। ... आखिर में मार खा के सोया। अब बच्चा क्या जाने घर की हालत कैसी है? भला हो पुनपुन वाली का, जो आधा दर्जन केला दे गई थी। एक सांझ केले की तरकारी तो बन जाती है... दूसरे बेला छिलके का चोखा... नहीं तो नून रोटी पर भी अब आफत है। छुटकी के लिए आधा लीटर दूध आता था। पिछले महीने ही बंद हो गया। दूध वाले का भी दो महीने का हिसाब है। अब छाती में दूध भी नहीं उतरता.... बेचारी छुटकी। थोड़ा दूध पीती है बाकि पेट तो पानी से ही भरता है उसका। आजकल बिस्तर भी गीला करने लग गई है।<br />
सोचते-सोचते सुखनी फफक कर रोने लगी। थोड़ी देर रोती रही, फिर आंसू पोछे और बेचैनी में उठकर बाहर निकली और गली से ही सड़क की ओर झांका, लेकिन न तो छोटका दिखा और न ही मुनिरका जादव। मन ही मन छोटका को आधा दर्जन गालियाँ दीं . एक बार तो उसका मन किया कि खुद ही मुनिरका को बुलाने जाए, किन्तु एक तो लोक लाज, ऊपर से छुटकी भी सो रही थी। इधर वह गई नहीं छोटकी टें टें करने लगेगी।<br />
‘नामुराद कहां मर गया? आता क्यों नहीं? जरूर मुनिरका गाय दूहने लगा होगा। ...कहीं छोटका खेलने तो नहीं लग गया रास्ते में....। पता नहीं क्या हो रहा होगा उधर।... और इसका बाप पता नहीं क्या कर रहा होगा।’ फिर आसमान की ओर देखते हुए भुनभुनाई- ‘हे भगवान! मुझे मौत क्यों नहीं आती?’ ...और पैर पटकते हुए जाकर फिर चौखट पर बैठ गई। रह-रह कर सुखनी के मन में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। एक मन कहता सब ठीक होगा, लेकिन अगले ही पल अंतर्मन से आवाज आती... भगवान भी तो गरीबों के साथ ही खेल करता है। अगर ऐसा न होता तो बैसाखी थोड़े ही न कहीं जाता। पुलिस में भी तो रपट लिखवाने गए थे छोटका के बाबू... लेकिन क्या हुआ? गरीबों की सुनता कौन है? मुंआ दरोगा कहता है- फोटो लाए हो? सभी गधे तो एक जैसे दिखते हैं। हम कैसे पहचानेंगे कि अमुक गधा तुम्हारा ही है? क्या नाम था गधे का? हुलिया बताओ। कहां-कहां जा सकता है? वैसे भी बिना फोटो के हम रिपोर्ट नहीं लिखते हैं। जाओ उसकी कोई निशानी ले आओ, जिससे उसकी पहचान हो सके।<br />
शाम ढल चुकी है। अंधेरा तिर आया है। सुखनी घर में झांकती है। सामने ही दीवार पर पुरानी घड़ी टंगी है। दोनों सुइयां छह पर एक पर एक चढ़ी हुई हैं। मालूम नहीं कितना बजा है। कई बार छोटका के बाबू ने उसे घड़ी देखना सिखाने की कोशिश की, लेकिन वह हर बार यही कह कर टाल जाती थी कि हमें इसकी क्या जरूरत है जी। आपको देखना आता है न, एतना ही काफी है। सुखनी बाहर निकल कर आसमान निहारती है। अभी हल्का उजियारा है, लेकिन कुछ देर में ही अंधेरा छा जाएगा और दीया-बाती का समय हो जाएगा। फिर जैसे आश्वस्त होने के लिए सामने वाले ऊंची इमारत पर निगाह फेंकती है। यह देखकर कि बाहर का बल्ब नहीं जला है, वह सड़क की ओर झांकती है।<br />
‘ई हरामखोर छोटका कहां मर गया? आता क्यों नहीं है? मुनिरका को भी जैसे गाय दूहने की जल्दी पड़ी थी। अगर तनिक देर के लिए आ जाता तो गइया दूध देने से मना कर देती क्या? एतना भी नहीं सोचा कि बच्चे को बुलाने भेजा है तो जरूर कोई जरूरी काम ही होगा।’- सोच में डूबी सुखनी की नजर तभी सामने से आते छेदी चौधरी के बेटे पर पड़ी।<br />
सुखनी- ‘बउआ जी... तनिक ईहां आइयेगा।’<br />
हां, चाची। का बात है? कोनो काम है का? सवाल पर सवाल दागता छेदी का बेटा उसके पास पहुंचा।<br />
सुखनी- ‘रोडे पर न जा रहे हैं.... हमरा एगो काम नहीं कीजिएगा?’<br />
छेदी का बेटा- ‘हां चाची... जा त ओन्हीं रहे हैं। कोनो काम है त कहिए। कुच्छो लाना है का?’<br />
सुखनी- ‘छोटका के खटाल में भेजे थे... मुनिरका जादव को बुलाने के लिए। घंटा बीत गया, लेकिन दुन्नो में से केकरो पता नहीं है। आप जा ही रहे हैं त मुनिरका को हमारा समाद**** कह दीजिएगा। आउर छोटका केन्हुं दिखाई दे ते दू लप्पड़ मार के घरे भेज दीजिएगा। मुंआ कोनो काम का नहीं है। माटी में लोट रहा होगा कहीं।’<br />
ठीक है चाची...।- बोल कर छेदी का बेटा चला गया।<br />
अब पूरा अंधेरा घिर चला है। अंदर से छुटकी की रोने की आवाज भी आने लगी थी। महतारी***** को घर में नहीं पा कर टेंटियाती बाहर ही आ रही थी। सुखनी ने उसे गोद में उठा लिया और घर में बढ़ गई। बेटी को कमर पर टिकाए सांझी-बाती दिखाने के लिए हाथ-पैर धोने लगी। छुटकी दूध के लिए टेंटिया रही थी, लेकिन सुर अभी तक नीचे का ही लगा रही थी। महतारी ने एक-दो बार उसे धमका दिया है। समझाते हुए बेटी से कहती है, सांझी-बाती दिखा लेने दे, फिर दूध पिला दूंगी, लेकिन छुटकी नहीं मानी। टें टें करती रही तो सुखनी ने एक झापड़ गाल पर रसीद करते हुए बेटी को बिस्तर पर लगभग पटक दिया। बेचारी बाप को याद कर के रोती रही। अभी उसका सुर पहले की तरह नहीं, बल्कि आठवें सुर के करीब था। देवी-देवता को सांझी-बाती दिखा के सुखनी अभी छुटकी को दूध पिलाने बैठी ही थी कि अचानक छोटका जेट विमान की तरह भागता हुआ कमरे में आया।<br />
छोटका- मैया... चच्चा आ गए।<br />
सुखनी- कहां मर गया था मुंए। एतना देर हो गया... जहां जाता है वहीं सट जाता है।<br />
इतने में मुनिरका भी आ गया। बाहर से ही बोलता अंदर आया- ई में छोटका के कोई गलती नहीं है भौजी। ई बेचारा त कहिए रहा था कि चच्चा जल्दी चलो, मैया बुला रही है। हमही सोचे कि गइया दूह लें, फिर चलते हैं।... अब बताया जाए। कौनो जरूरी काम है का?<br />
सुखनी- देखिए न ... छोटका कह रहा था कि उसके बाबू लाईन की तरफ गए हैं। बैसाखी के फेर में एन्ने-ओन्ने मारल-मारल फिर रहे हैं। केतना बार त समझा लिए कि अब का फायदा? जे होना था से हुआ। एगो साइकिल खरीद लीजिए... लेकिन ई ... करमजला मरद केकरो बात सुने तब न। कहीं कुच्छो उल्टा-पुल्टा कर लिए त हम ई दूगो बच्चा ले के कहां मरेंगे?<br />
मुनिरका- काहे रे छोटका? ई बात हमको काहे नहीं कहा? .... (फिर सुखनी की ओर मुखातिब होते हुए)... आप चिंता न करो भौजी। ... हम अबहिएं धनीराम भैया को देखते हैं। हम ले के आ रहे हैं। आप तनिको मत घबराइएगा।<br />
आश्वासन देकर मुनिरका उल्टे पांव लाईन की ओर भागा। लेकिन थोड़ी दूर ही गया था कि रास्ते में धनिया मिल गया। उसे देखते ही मुनिरका बिफर गया। बोला- बाल-बच्चा और मेहरारू****** को छोड़ के कहां मारे-मारे फिर रहे हो भाई?<br />
धनिया- का कहैं भैया... किसी ने कहा कि रेलवे लाईन के किनारे उसने बैसाखी को देखा था। उसे ही देखने चला गया था।<br />
मुनिरका- त का हुआ? मिला कि नहीं?<br />
धनिया- नहीं.... स्साले ने ठिठोली की थी। चिड़ई के जान जाए, लइकन के खिलौना...<br />
मुनिरका - भौजी ठीक ही कहती है। एगो साइकिल काहे नहीं ले लेते? कब तक गदहे का मातम मनाओगे? छह महीना बीत गया... अब का मिलेगा... घण्टा...<br />
धनिया- हमरा मन कहता है कि बैसाखी एक न एक दिन जरूर मिलेगा। तीन कोना छान मारे हैं, अब पुरवारी टोला बाकी है। सोचते हैं कि बिहान एक बार दानापुर की ओर देख लें। (ठंडी आह भरते हुए) मन में मलाल तो नहीं रहेगा कि उसे उस तरफ नहीं खोजा। हमको लगता है कि उ उधरे ही कहीं मिलेगा।<br />
मुनिरका- फिर वही पागलपन। हम का बोले...? अगर मिलना होता तो मिल गया होता। अब खोजबीन छोड़ो और काम धंधा पर ध्यान दो। ग्राहक किसी का नहीं होता है। एक बार छोड़कर चला गया तो दोबारा उस ग्राहक को पाना बहुत मुश्किल होता है। ... बेचारी भौजी को देखा है ... चेहरा कैसा कुम्हला गया है। लगता है जैसे रोगी है।<br />
धनिया- बस भैया, तुम्हरी कसम... बिहान भर खोजेंगे ... न मिला तो समझ लेंगे कि ...बात पूरी नहीं कर पाया धनिया। सामने रुआंसी सुखनी छुटकी को कमर पर टांगे दरवाजे पर खड़ी थी। थोड़ा सम्भलते हुए धनिया ने कहा- का भागवान.... घबरा काहे जाती हो? कौनो ट्रेन से कटने थोड़े गए थे। फिर छुटकी को अपनी गोद में ले लिया और दुलारते हुए कमरे में चला गया। खुशामदी लहजे में पत्नी से बोला- मुनिरका को चाह-पानी तो पिलाओ। (छुटकी को बिस्तर पर रखते हुए मुनिरका से कहा) आओ भाई ... बैठो। तुम्हरे बहाने हमको भी चाह मिल जाएगा।<br />
लेकिन सुखनी तो जैसे पूरी तरह लड़ाई के मूड में थी। घर में क्या है, क्या खतम हो गया, ये तो पूछा नहीं, ऊपर से चाय बनाने का ऑर्डर दे दिया। जैसे घर में सामान खरीद कर रख दिया हो। एक सांझ का आटा बचा है। तरकारी भी नहीं है कई दिन से। केले की तरकारी और छिलके का चोखा खा-खा कर मन बिगड़ गया है। कानी आंख भी उस पर नजर फेरने का मन नहीं करता है। कल सांझ के बाद ये भी खत्म हो जाएगा। चावल खत्म हुए आज छठा दिन है, लेकिन यहां हाकिम को सूझता थोड़े है। हमरा त करम उसी दिन फूट गया जिस दिन मां-बाप ने इसके पल्ले बांध दिया। फिर भी जैसे रखता है हम रह लेते हैं, लेकिन बच्चों का क्या होगा? इन्हें अकेला छोड़कर तो मर भी नहीं सकती। अगर मुनिरका यादव नहीं रहता तो आज फैसला हो जाता। फिर भी सुखनी ने चुप रहना ही मुनासिब समझा। मुनिरका चाय पीकर चला गया तो छोटका दुलार करवाने के लिए बाप की गोद में घुसने लगा। धनिया देर तक बच्चों के साथ खेलता रहा। सुखनी खाना पका चुकी तो चुपचाप खाने की थाली बिस्तर पर रख कर बाप की छाती पर बैठी छुटकी को उठाया ओर छोटका को कान से खींचते हुए भीतर वाले कमरे में ले गई। दोनों बच्चे टेंटियाने लगे तो सुखनी ने उन्हें धुन दिया। बेचारे बच्चे रोते-रोते सो गए। इधर, धनिया भुनभुनाता रहा। फिर खाना खाकर खटिया पर पसर गया। लेकिन बच्चों को सुलाकर सुखनी खुद जाग रही थी। आंखों के पोरों से आंसू ढरक कर दोनों ओर तकिए पर गिर रहे थे। खाना भी नहीं खाया उसने।<br />
अगले दिन सुबह-सवेरे ही सुखिया दानापुर के लिए निकल गया। दोपहर बाद पसीने में तरबतर घर लौटा और चहकते हुए पत्नी से कहा- मैं न कहता था सुखी... एक न एक दिन हमारा बैसाखी जरूर मिलेगा हमें। ...(गर्व से छाती में हवा भरते हुए) आखिर खोज लिए न।<br />
सुखनी- सच्चो! अपना बैसाखी मिल गया!!!??? (सुखनी के चहरे पर ख़ुशी और विस्मय के मिले-जुले भाव उभर आए। सिर पर आंचल करते हुए धरफराती हुई बाहर निकली। दाएं बाएं देखा, लेकिन जब कोई नहीं दिखाई दिया तो भागकर अंदर आई और जिज्ञासावश पति से पूछी)- कहां है जी हमारा बैसाखी? बाहर त नहीं है। साथ में नहीं लाए हैं का? कहां छोड़ आए उसे?<br />
‘भागवान! धीरज धरो... बैसाखी दानापुर में है किसी के पास। हम त उसको ले ही आते, ... लेकिन जिसके घर के देहरी पर वह बंधा था, उसका घरवाला नहीं था। उसकी लुगाई कहती है कि बैसाखी उसका है। उसका घरवाला सोनपुर मेला से खरीद के लाया है। ... जैसे हम अपना बच्चा के पहचानवे नहीं करते हैं। अरे... छह महीना का था तब से उसे पाला है। बात करती है .... उसका कैसे हो जाएगा? ... बैसाखी घर का रस्ता का भटक गया ... कम्बख्त ने उसे दरवाजे पर बांध लिया, जैसे उसका कोई माई-बाप नहीं है। धरती-पाताल एक कर दिए ... लेकिन बैसाखी को खोज ही लिए। सुखी उ अपना बैसाखी ही है। अब त दरोगा का सहारा है। थाना जा रहे हैं हम। दरोगा को कहेंगे कि तुम फोटो के लिए बैठे रहो, ... हमने अपना बैसाखी खोज भी लिया। अब उसे हमें दिलवा दे।’<br />
धनिया थाने पहुंचा। कुर्सी पर बैठकर दारोगा दोनों टांगें टेबुल पर रखे चाय की चुस्की ले रहा था। सुखिया अंदर पहुंचा तो दोनों पैर फैलाए दारोगा ने जूतों के बीच से उसे घूरकर देखा। बोला- का बात है बे? गदहे फोटो ले आया का?<br />
धनिया- हजूर, हमने त बैसाखी को खोज भी लिया। दानापुर के अनूप टोला में है। अब तो उसे हमें दिला दीजिए दरोगा जी। बड़ी मेहरबानी होगी। बड़ी परेसानी के दौर से गुजरे हैं। पूरा छह महीना उसके लिए जाने कहां-कहां भटके ... तब जाकर मिला।<br />
दारोगा - ठीक है ...चाय की चुस्की लेते हुए ... कल देखेंगे। आज गर्मी दिमाग में चढ़ गया है। कपार में दरद है। सबेरे आना फैसला कर देंगे।<br />
दारोगा का आश्वासन पाकर धनिया मारे ख़ुशी के फूले नहीं समा रहा है। उसकी ख़ुशी का कोई पारावार नहीं है। धनिया घर लौटा तो रोज की तरह मातम नहीं, बल्कि उत्सव सा माहौल था। बच्चे भी रो नहीं रहे थे। पत्नी द्वार पर टकटकी लगाए बैठी उसके आगमन की बाट जोह रही थी। खाना खाकर पति-पत्नी देर तक बतियाते रहे। धनिया बिस्तर पर गिरा, लेकिन सो नहीं सका। रात करवटों में ही बीती। यही हाल सुखनी का भी था। दोनों बेसब्री से सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। धनिया सोचता रहा- ‘बैसाखी काफी दुबला हो गया है। बेचारे को खाना बिना सुखा दिया है। मन तो करता है कि अभी जा के उसे खूब दुलार करूं। मेरा बच्चा! कितने दुख सहे होंगे। मैं भी तो उसे बिना वजह मारता-पीटता था। ... आखिर मेरा बच्चा है ... दुलार भी तो करता था।’ फिर पता नहीं कब सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। सुबह पत्नी ने जगाया तो धरफरा कर उठा और कुल्ला कर के गमछा कंधे पर रखा और थाने की ओर कूच कर गया। सुखनी कुछ कहती, तब तक वह गली पार कर चुका था।<br />
सात बजे हैं। धनिया थाने में हाजिर है। मुंशी से पूछा- दरोगा जी नहीं दिखाई दे रहे हैं।<br />
मुंशी - पगला गया है का? एतना सबेरे-सबेरे आ गया। जानता नहीं दरोगा जी देर रात को घर जाते हैं। चौबीसो घंटे क्या तुम्हीं लोगों की सेवा में लगे रहेंगे? अपना घर-दुआर उनका जैसे है ही नहीं। ... जा बाहर जा के बैठ। नौ बजे के बाद आएंगे दरोगा जी।<br />
जी सरकार- कहकर धनिया बाहर गली की ओर मुंह करके बैठ गया।<br />
नौ बजे जब दारोगा आया तो धनिया उसके पीछे-पीछे अंदर आया। हाथ जोड़ कर बोलो- सरकार ... न्याय किया जाए ...<br />
दारोगा ने हाथ से उससे दम धरने का इशारा किया। बेल्ट ढीली कर कमीज बाहर निकालते हुए कुर्सी पर बैठा और दोनों टांगें टेबल पर फेंक दी। फिर बोला- हां, भई... अब बक। कहां क्या देखा? कैसे पता चला कि उ तुम्हारा ही गदहा है।<br />
धनिया- सरकार... उ हमरा बच्चा है। छह महीना का था तब से उसे पाला-पोसा है। अपने बच्चे को कइसे नहीं पहचानेंगे।<br />
दारोगा- हुं.... फिर से सोच ले। पक्का गदहा तुम्हारा ही है?<br />
धनिया- सरकार ....सौ फीसद
<br />
दारोगा- ठीक है। अब ताे कुछ करना ही पड़ेगा। फिर एक सिपाही को बुलाया - रामसरूप ... जरा इसके साथ अनूप टोला जाकर गदहे के साथ उसके मौजूदा मालिक को थाने ले आओ। ऐ धनिया तू भी साथ में जा। ...<br />
दोनों रवाना हो गए।<br />
दोपहर दो बजे तीनों गदहे के साथ थाने पहुंचे। धनिया बैसाखी से लिपट कर बोला- मालिक अब हम इसे अपने साथ ले जाएं?<br />
दारोगा- काहे रे! एक मिनट में तुम्हरा मिरगी छोड़ा देंगे। स्साले चुपचाप खड़ा रह। नहीं त उल्टा लटका कर तशरीफ़ पर इतना बजाएंगे कि सोते-जागते सरगम गाएगा।<br />
फिर दोनों की ओर मुखातिब होकर बोला- हां तो धनिया, तू कहता है कि ई गदहा तेरा है। अब गदहे के मालिक से भी तो पूछ लें कि वो क्या कहता है। (अनूप टोले वाले को ताड़ते हुए) - क्यों बे ... ई गदहा किसका है?<br />
माई-बाप हमरा है ... (धनिया को देखते हुए) और किसका होगा। छह महीना पहले सोनपुर मेला से इसको खरीद के लाए थे। पूरा 2,000 रुपया दिए हैं।<br />
धनिया- सरकार, ई मेरा बैसाखी है। ... झूठ बोलता है ई आदमी।<br />
गधे के दो-दो दावेदार देख कर दारोगा बड़ी मुश्किल में फंस गया। कोई मानने को तैयार नहीं था कि गदहा उसका नहीं है। फिर कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा- देखो भाई, हम जो न्याय करेंगे, वह अंतिम होगा। दोनों पक्ष को फैसला मानना पड़ेगा। बोलो मंजूर है।<br />
दोनों हाथ जोड़ कर बोले- अब तो सरकार आपके न्याय का ही आसरा है।<br />
दारोगा- तो ठीक है ... इस गदहे को खुला छोड़ दो। (एक सिपाही से)- ऐ एक लाठी मार गदहे को। इसके बाद ई जिसके घर जाएगा, गदहा उसी का माना जाएगा।<br />
लट्ठ पड़ते ही गदहा ढेंचू-ढेंचू कर के भागा। दारोगा, दो सिपाही और गदहे के दोनों दावेदार उसके पीछे-पीछे। भागता हुआ गदहा सीधे धनिया के घर पहुंच कर रुका।<br />
दारोगा बोला- फैसला हो गया। ये गदहा धनिया का ही है। क्यों धनिया ... खुश है न?<br />
जी हुकुम- धनिया ने तो जैसे पूरा संसार जीत लिया था। दारोगा जी का फैसला सुनकर धनिया, उसकी पत्नी और छोटका की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। खुशी इस बात से दोहरी हो रही थी कि बैसाखी आज पूरे तीन साल का हो गया था। सुखनी भागकर अंदर गई और थाली में रोटी, रोली, दीया जला कर ले आई। पूरे विधि से बैसाखी की आरती उतारी और लोटे से उसके आगे पानी गिराया और रोटी उसे खिलाई। छोटका बैसाखी की पीठ पकड़ कर उछल-कूद कर रहा था तो बाप ने उसे पीठ पर बैठा दिया। छुटकी सामने बैठी बैसाखी को खाते निहार रही थी। धनिया प्यार से उसके सिर पर हाथ फिरा रहा था और सुखनी बैसाखी को प्यार से रोटी खिला रही थी। <br />
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<b>शब्दार्थ </b><br />
१. खटाल- गाय, भैंस के लिए बना शेड <br />
२. फुलौना- गुब्बारा<br />
३. जोर-पगहा तुडाना - जिद करना<br />
४. समाद- सन्देश <br />
५. महतारी- माँ <br />
६. मेहरारू- पत्नी <br />
७. पुरवारी- पूरब की ओर<br />
८. बिहान- कल (आनेवाला)<br />
९. देहरी- घर का प्रवेश द्वार <br />
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nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-22736426538853033002011-01-19T09:43:00.000-08:002011-01-19T09:43:00.146-08:00एक भरोसे ने ठंढ़ में मारादिसंबर का आखिरी सप्ताह था. एक तो ममता दीदी की ट्रेनों ने बड़ी बेदर्दी से मारा. ऊपर से दोस्त के स्नेह ने रात भर प्लातेफ़ोर्म पर रात गुज़ारने को मजबूर कर दिया. लाचारी कुछ ऐसी थी कि कहीं और जा भी नहीं सकता था. <br />
बात लखनऊ की है. अभी मुश्किल से सप्ताह भर पहले ही लौटा था कि पता चला मेरे एक परिचित जो मेरे मित्र के छोटे भाई हैं, वहीँ आ गए हैं. जा ही रहा था तो सोचा क्यों न उनके पास ही चला जाये. इसी बहाने उनसे मुलाकात भी हो जाएगी. अपने आगमन की पूर्व सूचना तो दे ही दी थी, पहुँचने से पहले भी दो तीन बार फोन कर लिया कि टपक रहा हूँ. भाई ने सहृदयता से बुलाया भी. ट्रेन के लक्षण ठीक नहीं देखकर मैंने करीब ९-१० बजे फिर फोन कर दिया कि ट्रेन लेट हो सकती है. उम्मीद है ११ भी बज जाये. तय हुआ कि जब भी पहुंचूं उन्हें फोन कर दूंगा ताकि वो लेने आ जाएँ. हादसे का सफ़र यहीं से शुरू हुआ. वैसे ट्रेन में सवारहोने से पहले ही इसकी शुरुआत हो गयी थी. ट्रेन निर्धारित समय से कुछ घंटे देर से चली. हाँ तो, करीब ११ बजे से ही मुझे लगने लगा था कि आज कि रात भारी गुजरने वाली है. पता नहीं क्यों हर बार मुझे आभास हो जाता है कि मेरे साथ कुछ गड़बड़ होने वाला है... कभी कभी तो पूरा पूरा पता चल जाता है. जैसे पिताजी के देहांत से ३ माह पहले मुझे उनकी सारी बातें याद आने लगीं. साथ में एक डर कि शायद पिताजी..... आशंकाएं निर्मूल नहीं थीं. उसके पहले एक ऐसे रिश्ते के अंजाम का आभास हुआ था कि सब छूटने वाला है...वह भी सच साबित हुआ. ऐसे ढेरों वाक़यात हैं. <br />
मन में हुआ कि फोन कर दूँ कि बस पहुँचने वाला हूँ. लेकिन यह सोचकर कि अब सीधे स्टेशन से ही फोन करूँगा. जिस मुई गाड़ी को शाम ६ बजे लखनऊ पहुंचना था वह रात के ११:३० बजे पहुंची. उतरते ही फोन घुमाया, लेकिन बन्धु ने उठाया नहीं. फिर किया...कोई जवाब नहीं. मेरे पास सिर्फ़ पता ही सहारा था. बहरहाल हम कोशिश करते रहे और हमारी कोशिश नाकाम होनी थी, इसलिए नाकाम होती रही. खैर एक ऑटो वाले से पूछा कि आशियाना ले चलोगे? उसने कहा- इसीलिए तो खड़े हैं हुज़ूर. <br />
हमने कहा- चलो. पैसे कितने लोगे? <br />
ऑटो वाले ने अनुमान के मुताबिक़ ही मुह फाड़ा- १०० रूपए. <br />
खैर हम चल पड़े. इस कवायद में १२:३० बज गए थे. एक बजे एल डी ए कालोनी पहुंचे, लेकिन लैंड मार्क नहीं मिला. ऑटो वाले को भी घुमाता रहा पर उसे भी पाता नहीं था. आखिरकार हमने उसे मुक्त कर दिया और कंधे पर बैग टाँगे भटकते रहे. कई बार फोन भी किया लेकिन जवाब नहीं मिला. आख़िरकार मकान ढूंढ लिया. कॉल बेल बजायी तो दो अनजान चेहरे देख के लगा...बज गयी घंटी. ये तो गलत पता है भाई. हुआ भी वही. मित्र ने जो पता दिया था वह उनके हिसाब से सही था और मैं जिस पते पर पहुंचा था वह मेरे हिसाब से सही था. खैर ये पता गलत निकला. मैं अब विकट मुश्किल में था. क्योंकि अमूमन मैं किसी के यहाँ जाता ही नहीं. होटल में ही ठहरना मुनासिब समझता हूँ. बैग टाँगे चलता रहा. काफी थक चुका था. वहीँ गोल मार्केट में खाली बेंच देखा तो बैग रखा और चादर बिछा कर बैठ गया. मन हुआ कि सो जाऊं. अब तक रात के १:३० बज गए थे. ठंढ में देर तक बैठा रहा...पर और बैठना मुनासिब नहीं लगा. बैठ टांगा और चल पड़ा. कोई ४ किलोमीटर चल कर सड़क पर पहुंचा तो ऑटो मिल गया. सीधे स्टेशन पहुंचा. अब रात के करीब ५ बज गए थे. कहीं कोई जगह नहीं थी. प्लेटफोर्म एक पर एक बेंच खाली थी. थकान तो हो ही गयी थी. ऊपर से खाए हुए भी २४ घंटे हो गए थे. ठंढी हवा के मारे बुरा हाल था. मैंने बैग सिरहाने रखा और चादर ओढ़ के सो गया. लेकिन ठंढ ऐसी थी कि जूते के अन्दर पैर ठिठुरा जा रहा था. जैसे तैसे रात गुज़र गयी. ८ बजे के बाद भाई ने फोन किया. अफ़सोस जताया. जब पाता चला कि मैं स्टेशन पर ही रात भर रहा तो उसे ग्लानि हुई. उस से ज्यादा मुझे हुई. अपना ठिकाना होने के बावजूद मैंने ऐसे रात गुजारी.nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-1074531752250718082011-01-09T09:34:00.000-08:002011-01-09T09:34:19.781-08:00प्याज और प्रेमिकाप्याज मेरे लिए पूर्व प्रेमिका की तरह है जो याद करो तो आती नहीं और मनाओ तो मानती नहीं. आंसू तो दोनों ही सूरत में निकलते हैं. मुश्किल यह है कि दिल बेचारा है जो हर बाद उसे याद कर के सुबकता है. कभी प्याज के बहाने तो कभी प्रेमिका के बहाने. दोनों ही मुझे प्रिये हैं. न तो प्याज को छोड़ सकता हूँ, न प्रेमिका को. समस्या यह है कि यदि प्याज छोड़ दिया तो तरकारी का रस गाढ़ा नहीं होगा और प्याज ले आया तो गाढ़ी कमाई जाएगी. फीकी सब्जी चटोरा जीभ स्वाद नहीं लेगा. स्वाद नहीं मिलेगा तो सूखी रोटी गले के नीचे उतरेगी नहीं. लिहाज़ा पेट में तौलिया लपेट के सोना पड़ेगा. प्रेमिका की माया से शरीर ने वैसे ही दगा दे दिया है! हमने तो पिछले साल से ही नए साल के लिए रेजोल्यूशन बना लिया था कि इस साल छक के खाऊंगा. पर महंगाई की देवी को हमारा रेजोल्यूशन लगता है पसंद नहीं आया. <br />
प्रेमिका और प्याज में एक समानता है . यदि आपके पास धन है तो प्रेमिका भी आएगी और प्याज भी. मेरी लाचारी है कि मेरे पास लक्ष्मी नहीं टिकती तो रसोई में प्याज और जीवन में प्रेमिका कहाँ से टिके. दो दिन पहले एक मित्र घर आये. जनाब ने गृह प्रवेश से पहले ही प्रेमिका का हाल पूछ लिया. आँखें छलक आयीं, लेकिन हमने उसे अभी व्यर्थ बहने से रोका ही था कि जनाब फरमाइश कर बैठे कि प्याज के पकोड़े खाने की इच्छा है. आपके हाथ के बने पकोड़े खाने का अलग ही आनंद है. ह्रदय जोर से धड़का और कलेजा बैठता गया. दो दो सदमे झेलने का न तो समय रहा और न ही शरीर. क्षण में ही धन्वन्तरी सी एकहरी काया सूखे पत्ते की मानिंद कांपने लगी. लगा जैसे शरीर का पूरा खून निचुड़ गया. अतीत एक बार फिर हावी हो गया...कभी प्रेमिका का चेहरा आँखों के आगे घूम कर जैसे मुह चिढ़ाता तो कभी प्याज. मुह से शब्द नहीं फूट रहे थे. मित्र को झेलना भारी पड़ रहा था. प्रेमिका के बारे में चलो कह भी देता कि उसने मुझे छोड़ किसी और के साथ घर बसा लिया. लेकिन इस नामुराद प्याज का क्या करूँ? कैसे कहूँ कि मैं वैष्णव हो गया हूँ. कारण जो भी हो. मैंने पाला बदल लिया है. अब तो जहाँ प्याज होता है मैं वहाँ नहीं होता हूँ. लाचारी में अगर बाज़ार का रुख करना भी पड़ा तो प्याज को देखकर असहज हो जाता हूँ. मन उसे देख कर ललचाता है...और आह भरता है...काश! मेरे पास लक्ष्मी होती तो दोनों को नहीं खोता!nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-36338500474553809412010-02-04T11:47:00.001-08:002010-02-11T10:30:38.582-08:00मेला देख रोए कबीरालंबे समय से मैं 2010 में दिल्ली में लगने वाले 19वें विश्व पुस्तक मेले की बाट जोह रहा था। मुझे बड़ी उम्मीद थी कि इस बार जरूर अपने पसंदीदा देसी और विदेशी लेखकों की किताबें खरीद सकूंगा। रोजमर्रा के काम से देर रात को छुटकारा पाने के बाद सुबह-सुबह बिस्तर का मोह त्यागना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है। चार बजे सुबह सोने वाला प्राणी ही मेरी इस मर्मस्पर्शी पीड़ा को समझ सकता है। खासकर जाड़े की अलसाई सुबह रजाई का मोह त्यागना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। सुबह उठने के लिए जिस वक्त का मैंने अलार्म लगाया उस समय निंदिया रानी हम जैसों को आगोश में लेकर स्वप्न लोक का भ्रमण कराती घूमती है। रोज की तरह हम करीब दो बजे कमरे पर पहुंचे। आगे नाथ न पीछे पगहा... ऐसा तो है नहीं कि घर जाते ही गरमागरम खाना दस्तर$खान पर लगा दिया जाएगा। यहां तो हम रोज ही कुआं खोदते हैं और रोज ही पानी पीते हैं। बहरहाल खाना बनाने के बाद खाते-खाते भोर के 3:30 बज चुके थे। सोने से पहले रोज की तरह मेडिटेशन भी करना था। अत: मेडिटेशन के बाद जब हम शयन सुख लेने रजाई में घुसे तब तक 4:15 बज चुके थे। हमने यह सोचकर 7 बजे का अलार्म लगाया कि कान-पूंछ हिलाते-हिलाते 7:30 तो बज ही जाएंगे। लेकिन हम दो कदम आगे निकले, अब उठता हूं... तब उठता हूं करते-करते 8:15 बज गए। मैंने तत्काल रजाई फेंकी और दिल्ली प्रस्थान की तैयारियों में जुट गया। 15 मिनट में तैयार तो हो गया, लेकिन एक समस्या अब भी मुंह बाए खड़ी थी। तितली रानी ने भी मेले से किताब लाने का फरमान सुनाया था, परन्तु लिस्ट उन्हीं के पास थी। मैंने मैसेज किया पर कोई फायदा नहीं। मोहतरमा घोड़े और पता नहीं क्या-क्या बेचकर सो रही थीं। टाइम पास करते-करते करीब नौ बजे मैंने फोन किया तब जाकर उठीं। अलसाए अंदाज में किताबों की फेरहिस्त मुझे थमाई। उन्हें देखकर मेरे मन में भी अपने प्यारे बिस्तर के लिए दया भाव जाग गई। इच्छा तो हुई कि मैं वहीं पर पसर जाऊं, पर दिल्ली जाना भी जरूरी था। <br />
इसी बीच हमें एक और मित्र कॉलोनी में भटकते मिल गए। उन्हें भी दिल्ली जाना था। सोचा चलो एक से भले दो। मित्र अपने घर यह कहकर प्रविष्ट हुए कि दूसरी तरफ से निकलता हूं आप उस तरफ आइए। 15 मिनट इंतजार के बाद भी जब वे घर से नहीं निकले तो मैंने सोचा दाढ़ी ही बनवा लूं। समय भी कट जाएगा और मित्र चित्रग्रीव भी आ जाएंगे। पर धत... अभी नाई ने साबुन ही लगाया था कि जनाब सपत्नीक निकल आए। अब उठना संभव नहीं था, नाई उस्तरा भांज चुका था। इस हाल में जाने का मतलब वे मदारी और मैं बंदर से कम नहीं दिखता। वे बाद में निकले, लेकिन मुझसे पहले बस अड्डे पहुंच गए। मैं पहले निकला और लेकिन बाद में बस में चढ़ा। रास्ते भर हम फोन पर बतियाते रहे और एक-दूसरे के बस को निहारते रहे। लेकिन सब व्यर्थ.. दिल्ली अंतरराज्यीय बस अड्डे पर पहुंचने के बाद ही हम एक-दूसरे का दर्शन कर सके। बस अड्डे से वे अपने रास्ते और मैं प्रगति मैदान के रास्ते। <br />
मैंने सोचा क्यों खामख्वाह ऑटो में 70-80 रुपए फूंकूं? जब बस दस रुपए में ही गंतव्य तक पहुंचा देगी तो इतना पैसा क्यों व्यर्थ खर्च करूं? इतने में तो एक किताब आसानी से आ जाएगी। मैंने रिंग रोड सेवा ली, लेकिन दिल्ली में विकास कार्यों के चलते प्रगति मैदान ही पहचान नहीं सका। सोचा अब प्रगति मैदान आएगा, अब आएगा। लेकिन उसे तो आना ही नहीं था। मेरे होश तब उड़ गए जब देखा कि बस लाजपत नगर पहुंच गई है। मैं तत्काल रेड लाइट पर ही कूद पड़ा। मेरा शायद दिन ही खराब था, यहां से मुझे कोई ऑटो नहीं मिला। उस मनहूस घड़ी को कोसते हुए मैं पैदल ही टेंशन में साउथ एक्सटेंशन पहुंचा। ग्लास भर जूस पीया और अंडरग्राउंड रास्ते से सड़क के दूसरी ओर पहुंचा। सौभाग्य से एक ऑटो वाला प्रगति मैदान जाने को तैयार हो गया। <br />
जब हम प्रगति मैदान पहुंचे तो दो बज चुके थे। हमने सोचा टिकट लेकर जल्दी प्रविष्ट हुआ जाए, लेकिन हत भाग्य! टिकट काउंटर तो खुला था, लेकिन उसमें टिकट देने वाले महाजन ही नहीं थे। काउंटर के ऊपर लिखा था 6 से 12 साल के बच्चों के लिए टिकट 10 रुपए, वयस्क- 20 रुपए। आगे जाकर एक कमरे में झांका तो एक सज्जन मिले। टिकट कहां मिलेगी? - उनसे पूछा। जवाब मिला- 10 नंबर गेट पर चले जाइए। मुझे लगा जैसे मेरे साथ लुका-छिपी खेला जा रहा है। अब दस नंबर गेट किधर ढूंढूं? ऐसा नहीं है कि सिर्फ मैं ही अंदर जाने के लिए छटपटा रहा था। मेरे जैसे और भी कई पुस्तक प्रेमी वैसे ही भटक रहे थे, जैसे को अतृप्त आत्मा! इस आंख-मिचौली में करीब 30 मिनट बीत गए। अब 2:30 बज रहे थे। पत्रकार होने के बावजूद मैं आई कार्ड लेकर नहीं घूमता। सोचता हूं कि जब घुड़की ही काम कर जाती है तो इसे लेकर घूमने से क्या फायदा? मैंने इस उम्मीद से अपने कुछ प्रकाशक मित्रों को फोन घुमाया कि वे गेट पर आएंगे और मुझे बाइज्जत अंदर ले जाएंगे। लेकिन यह भूल गया कि जिस शहर के लोगों की आंख तक का पानी ही सूख चुका है उस शहर के लोगों से ऐसी उम्मीद पता नहीं कैसे पाल बैठा! खैर हम भी जि़द्दी टाइप के ही हैं। बिना 'हनुमान गियरÓ लगाए काम नहीं चलेेगा, यह सोचकर फिर से गेट पर पहुंचे। अंदर जाने लगा तो सिक्योरिटी गार्ड ने टिकट मांगा। मैंने कहा- नहीं है। <br />
गार्ड - पास दिखाइए।<br />
- वह भी नहीं है- मैंने कहा।<br />
गार्ड- फिर आप अंदर नहीं जा सकते।<br />
- अखबार वाले को रोकता है! कहां है तेरा अधिकारी? उसे बुला।<br />
गार्ड- साहब! आप पहले बताते। ऐसा कीजिए... चार नंबर गेट से चले जाइए। आप लोगों की एंट्री अरेंजमेंट उधर से ही है।<br />
जब चार नंबर गेट पर पहुंचा तो दिल्ली पुलिस की पल्टन देखकर हवा निकल गई। मन ही मन सोचा, कहीं रोक दिया तो इज्जत का फलूदा निकल जाएगा। लेकिन मुझे तो हर हाल में पुस्तक मेले में जाना था। मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी और शान से अंदर दाखिल हो गया। पुलिस वाले भी सोचते रहे, कोई बड़ा 'तोपÓ होगा तभी तो धड़धड़ा के घुस गया। एक थ्री स्टार लगाए पुलिस वाला सामने टकराया। इशारों में पूछा तो मैंने भी इशारे में जवाब दिया। मुझे घूरा तो मैंने उसे ऊपर से नीचे तक नाप लिया। शायद उसके दिमाग की बत्ती जल गई तब तक। यही सोचा होगा, मुझसे पंगा लेना ठीक नहीं है। ढीठ प्राणी दिखता है। फिर वह साथ चलने लगा और बोला- कहां जाना है?<br />
- पुस्तक मेले में... आपको चलना है तो चलिए (थोड़ी अकड़ के साथ)<br />
पुलिसवाला- मेरा मतलब है... आपके पास ...<br />
- पत्रकार हूं (बीच में ही टोकते हुए)<br />
पुलिसवाला- सर आप गलत दिशा में जा रहे हैं। यह तो प्रोटोकॉल एरिया है। मीडिया लाउंज उस तरफ है। (फिर उसने यह कहते हुए एक अर्दली को साथ लगा दिया कि साहब को मीडिया लाउंज छोड़ दो)। हुक्म की तामील करते हुए उसने मुझे मीडिया लाउंज के गेट पर छोड़ तो दिया, लेकिन मुझे देखता रहा कि मैं अंदर जाता हूं कि नहीं। मैंने उसका धन्यवाद किया और अंदर चला गया। वहां कुछ पत्रकार बंधु पेट पूजा में मशगूल थे। एक-दो लोग जान-पहचान के भी थे। लेकिन उनका ध्यान खाने पर ही था। <br />
बहरहाल हम जल्दी बाहर निकले और वहां से हॉल नंबर एक में पहुंचे। यहां एक प्रकाशक मित्र से मिला और कुछ स्टॉल घूमने के बाद सीधे हॉल नंबर 12 ए पहुंचा। घूम-घूम कर किताबें ढूंढऩे लगा। सोचा था एकाध साहित्यकार से मिलकर वर्तमान साहित्य की दशा और दिशा पर चर्चा करूंगा। इसी बहाने कुछ लिखने को मसाला भी मिल जाएगा। कई स्टॉल घूमने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि साहित्यकारों से बातचीत के अलावा पुस्तक प्रेमियों से भी पूछ लिया जाए कि उन्हें पसंदीदा लेखकों की पुस्तकें मिलीं या वे भी निराश लौट रहे हैं। कहने को तो यह विश्व पुस्तक मेला था, लेकिन कोई खास उत्साह और उमंग नहीं दिख रहा था। कई बड़े साहित्यकारों की तो पूरी रेंज भी उपलब्ध नहीं थी। एक प्रकाशन हाउस के स्टॉल पर पहुंचा तो एक मित्र टकरा गए। इसी प्रकाशन हाउस में कार्यरत थे। यहां एक नामचीन साहित्यकार की पुस्तक का लोकार्पण चल रहा था। कुर्सी पर जमे कुछ पत्रकार बंधु व अन्य लोग वहां खड़े लोगों को हेय दृष्टि से ऐसे देख रहे थे, जैसे सामने वाले की औकात कौड़ी भर की भी न हो। इतने में मित्र ने एक व्यक्ति को उठाया और उनकी जगह मुझे बैठा दिया। एक मिनट में ही सीन बदल गया। करीब 20 मिनट तक लोकार्पण और 'दो शब्द कहिएÓ झेलता रहा। इस दौरान मेरी तबीयत बिगडऩे लगी, लगा जैसे दम घुट जाएगा। अकबकाई हालत में इधर-उधर देखने लगा कि किसी से पानी का बोतल मांगूं। सुबह से कुछ खाना तो दूर पानी भी नहीं पिया था। अन्न-पानी के नाम पर साउथ एक्सटेंशन में सिर्फ एक ग्लास जूस ही उदर में प्रविष्ट कर पाया था। पास बैठी एक महिला ने शायद मेरी बेचैनी भांप ली। उन्होंने पानी का बोतल मेरी ओर बढ़ाया, एक घूंट पानी ही था। उन्होंने कहा- इसी से काम चलाइए। मैं पानी मंगवाती हूं। पानी पीकर मैंने उनका धन्यवाद किया और बाहर निकल गया। वह तो तितली रानी की पुस्तकें लेनी थी इसलिए व्यर्थ प्रलाप झेलता रहा। नहीं तो मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में कभी किसी का इंतजार नहीं किया। समय से काम कीजिए और रास्ता नापिए। अपने जीवन का यही फंडा है। खैर बाहर निकल कर हमने एक बार फिर उस प्रकाशन स्टॉल और तितली रानी द्वारा दी गई किताबों की सूची पर निगाह डाली। फिर यह सोचकर दूसरे प्रकाशन के स्टॉल के लिए चल पड़ा कि वापसी में ये किताबें ले लूंगा। किताबें खरीदते-खरीदते मैं माक्र्स विचार धारा को समर्पित साथियों के स्टॉल पर पहुंचा। मनपसंद रूसी साहित्यकारों की किताबें बटोरता गया। यहां किताबें अधिक हो गईं और पैसे कम पड़ गए। फिर भी सर्वाधिक आठ-दस किताबें मैंने यहीं से खरीदी। जेब में और पैसे होते तो कुछ और किताबें खरीदता, ऑर्डर दे देता। फिर भी इसी बात से दिल को दिलासा दिया कि जब पैसे ही नहीं हैं तो सोचने से क्या फायदा। अब तक मेरी हालत और बिगड़ चुकी थी। पीठ, कमर और पैर में बेतहाशा दर्द हो रहा था। पैर सूज चुके थे, जिसके कारण जूता कसता जा रहा था। मन में फिर एक उम्मीद जगी। अमित ने खाने का न्योता दिया था। फिर एक दुर्भाग्य, मैंने दूसरा मोबाइल इसलिए घर छोड़ दिया कि खामख्वाह क्यों इसे ले जाऊं? उसी में अमित और कुछ अन्य दोस्तों के नंबर थे। सत्यम से मैंने संदीप का नंबर लिया। बात की तो पता चला, जनाब की तबीयत नासाज थी। मैंने सोचा- क्यों इन्हें तकलीफ दूं। फिर रविकांत ओझा का नंबर याद आया। फोन किया तो साहब घर पर ही थे, लेकिन बाजार जाने की तैयारी कर रहे थे। मैंने कह दिया कि शाम को आपके यहां आ रहा हूं। बंधुवर ने बताया कि वे कमरा शिफ्ट कर चुके हैं। हमने तितली रानी से जो बैग लिया था उसमें किताबें ठूंसी और बाकी कैरी बैग में डालकर रविकांत के घर के लिए चल पड़े। <br />
अब हमें क्या पता था कि मेले से से बाहर निकलना इतना दुष्कर कार्य है। यह स्थान महरौली की भूल भुलैया से कम नहीं था। आधा घंटे तक चलता रहा, लेकिन बाहर का रास्ता नहीं मिला। किसी से पूछता तो वह वही रास्ता बताता जिस रास्ते से मैं वहां तक आया था। मेरी हालत बिगड़ती जा रही थी, लेकिन यह सोचकर मन को दिलासा दे रहा था कि बाहर निकलने के लिए मैं अकेले नहीं भटक रहा हूं। सभी की हालत ऐसी ही है। कोई बाहर निकलने का रास्ता पूछने में संकोच कर रहा है तो कोई यह सोचकर खड़ा है कि दूसरा रास्ता पूछ ही रहा है, उसी के पीछे बाहर निकल जाऊंगा। कुछ की तो हालत ऐसी थी कि मत पूछिए। एक ही रास्ते पर पेंडुलम की तरह झूल रहे थे। त्रिशंकु बने हुए थे। न इधर के , न उधर के। मैं सोच रहा था कि कोई स्टाफ मिल जाए तो उसी से पूछ लूं। <br />
एक सज्जन को दो नंबर गेट जाना था। एक व्यक्ति ने रास्ता बताया। कुछ दूर तक पत्नी के साथ वे आगे गए, लेकिन दूसरे व्यक्ति ने पीछे का रास्ता बता दिया तो उल्टे पांव लौट पड़े। लोग पुस्तक मेला घूमने में उतना नहीं थके होंगे, जितना बाहर निकलने की कसरत में। मैं करीब 5:15 बजे से पिंजरे में कैद पंछी की तरह आजाद गगन में निकल भागने को फडफ़ड़ा रहा था। लेकिन छह बजे तक निकल नहीं पाया था। वैसे भी पता नहीं क्यों शाम होते ही मेरे दिमाग की बत्ती गुल हो जाती है (उसी तरह जैसे एक फिल्म में कादर खान को शाम होते ही दिखाई देना बंद हो जाता था)। हालांकि मुझे दिखाई तो देता है (लेकिन दूर का धुंधला) पर जब कुछ सोचता हूं तो परिणाम उल्टा ही निकलता है। करीब 6:15 बजे प्रगति मैदान के बाहर निकल कर मैंने दो टिक्कियां खाईं। वह भी इस डर से कि कहीं माइग्रेन न उपट जाए। हुआ भी यही। बाहर घंटा भर से अधिक देर तक इंतजार करता रहा। न तो कोई ऑटो बस अड्डे के लिए मिली और न कोई बस आई। आखिरकार एक बस मिली और मैं उसमें चढ़ गया। जेब से पैसे निकाल लिए ताकि कंडक्टर को तकादा करने की नौबत नहीं आए। फिर एक सीट खाली हुई तो उस पर बैठ गया। राजघाट रोड पर पहुंंचा ही था कि बस अड्डे से काफी पहले एक रेड लाइट पर उतर गया। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि 100 मीटर दूर बस अड्डा है और हरियाणा, पंजाब और हिमाचल जाने वाली बसें बाहर निकल रही हैं। रेड लाइट पर पहुंचा तो गलती का अहसास हुआ। बस अड्डा तो काफी आगे है। भागकर एक बस में चढ़ा तो कंडक्टर ने पांच रुपए का टिकट फाड़कर थमा दिया। कमबख्त ने लेकिन उतारा तो पिछले गेट पर। मुझसे जहां एक कदम नहीं चला जा रहा था वहां अब इतना लंबा रास्ता पार करके बस अड्डे में जाना था। शक्ति संचय करने के लिए एक सिगरेट जलाई। थोड़ी ऊर्जा बटोरकर अंदर गया, लेकिन काउंटर पर पहुंच कर पता चला कि पानीपत जाने वाली किसी बस में सीट नहीं है। इस बीच लगातार रवि का फोन आ रहा था। अपनी लाचारी से दो-चार कराने में बाद मैंने अपने सखा से माफी भी मांग ली, लेकिन उनके पास नहीं जाने का अफसोस भी था। मैं तो यही सोचकर नहीं गया कि ऐसी दुर्गति कराकर क्यों उन्हें भी परेशान करूं? पर अफसोस होना था तो हो रहा था। सुबह से परेशानी झेलते-झेलते शाम हो गई। इससे तो अच्छा था कि रवि के घर ही चला जाता। कम से कम आराम से सो तो जाता। पर देर हो चुकी थी। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं कुछ सोच भी सकूं, दो कदम चलना तो दूर की बात। पता नहीं कब बस मिलेगी? मिलेगी भी या नहीं? खाना कहां खाऊंगा? तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो? इससे भी बड़ी चिंता यह कि कहीं मुझे आंख लग गई और कोई किताबें ले उड़ा तो? तितली क्या मानेगी कि मैं सच कह रहा हूं? वह तो ठगा सा महसूस करेगी। मन में उभर रहे विचार ने मुझे बेचैन कर दिया। मैंने मन ही मन कहा- अम्बे! सारी परेशानियां के मेरे ही हिस्से में डाल दी है तुमने। अब पानीपत कैसे जाऊंगा? खड़ा होकर जाने की हिम्मत तो दूर घंटे भर से अधिक बैठ भी नहीं सकता। फिर यह सोचकर बस अड्डे बाहर निकल आया कि पंजाब रोडवेज या चंडीगढ़ जाने वाली बस में बैठ जाऊंगा। भगवती की कृपा से बाहर ज्यादा देर खड़ा नहीं रहना पड़ा। पंजाब रोडवेज की बस में चढ़ गया। करीब 7:15 बजे बस में बैठा था और 9 बजे तक यह पता नहीं चल पाया कि मैं कहां तक पहुंचा हूं। मन लगाने के लिए मैं अपने दोस्तों को मैसेज करने लगा। रह-रह कर ड्राइवर और बस की रफ्तार पर भी निगाह डालता। बाहर देखने की कोशिश करता, लेकिन चारों तरफ अंधेरे के चलते पता नहीं चल पा रहा था कि हम कहां तक पहुंचे हैं। अब तो मेरा बैठना भी मुहाल था। मैंने बस रुकवाई- चलते-चलते ड्राइवर को कहा, भाई आप में गज़ब का पेशेंस है। काश! भगवान मुझे भी इतना धैर्यवान बनाता। वह सोच रहा होगा कि पता नहीं मैं क्या बोल रहा हूं, शायद पागल भी समझा हो। यह समालखा था। मैंने फिर माथा ठोक लिया। कुछ देर और बैठा रहता तो पानीपत नहीं आता क्या? यहां से मैंने हरियाणा रोडवेज की बस पकड़ी, 20 मिनट में ही उसने पानीपत में उतार दिया। बोले तो... एकदम क्रैक सेवा। ऐसा लग रहा था कि ड्राइवर घर में पत्नी से झगड़कर और ठानकर निकला हो कि उसे विधवा बना के ही दम लेगा। बस अड्डे पर रिक्शेवालों को देखकर मुझे बड़ी आत्मिक शांति मिली। लेकिन यह क्या? मुझसे तो चला ही नहीं जा रहा था। पीड़ा अपने चरमोत्कर्ष पर थी। रिक्शावालों से पूछा तो कोई 50 रुपए मांगे तो कोई पूछे सेक्टर 6 किधर है। पांच-सात मिनट तक मगजमारी करने के बाद मैंने अनुज लोकेश को फोन किया, लेकिन वह एडीशन में व्यस्त था। फिर अपने डिस्ट्रिक्ट आईकॉन (हाल ही में एक संस्था ने उन्हें यह उपाधि दी है) अजय राजपूत से कहा कि भाई, मैं नहीं चाहता कि भरी जवानी में भगवान मुझे उठाए। तुम ही उठाने आ जाओ। अपने द्विचक्र वाहन पर लादकर ले जाओ। उन्होंने तत्काल एक साथी को भेज दिया। भला हो उसका, मुझे घर तक पहुंचा दिया। अब इतनी हिम्मत नहीं थी कि कुछ बना सकूं। एक कोशिश की, लेकिन दो पल में ही हिम्मत जवाब दे गई। सोने गया तो नींद नहीं आई। फिर कब सोया, पता नहीं।nagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-9245862775726221912010-01-30T05:05:00.000-08:002010-01-30T05:05:10.165-08:00घो घो रानी कितना पानीnagarjunahttp://www.blogger.com/profile/17023873062790558915noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6334280429304446341.post-4704965986101225812009-11-14T03:34:00.000-08:002012-12-02T09:57:18.577-08:00रानू<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<i><b>आज जब मैं यह उपन्यास लिख रहा हूँ इसका पात्र जीवन का 36वाँ बसंत देख रहा होगा. काफी समय तक मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि शुरू कहाँ से करूँ ? आखिरकार दस साल के बाद यह फैसला ले पाया कि कहानी कथानक के वर्तमान से शुरू कर फ्लैश बैक में ले जाने से बेहतर होगा कि इसे कथानक के बचपन से ही आरम्भ किया जाए.इसके दो फायदे हैं - एक तो कथानक पात्र परिचय से बचेगा, दूसरा चरणबद्ध तरीके से कहानी भी </b></i><i><b>आगे </b></i><i><b>बढ़ती रहेगी. स्थान परिवर्तन, परिवेश और परवरिश का बच्चे पर पूरा-पूरा असर पड़ता है.. इन तमाम चीज़ों से न सिर्फ़ उसके भविष्य का निर्धारण होता है. बल्कि उसके वर्तमान पर भी ये गहरी छाप छोड़ती हैं..... </b></i><br />
बात 1979 -80 की है. जयप्रकाश नारायण के छात्र आन्दोलन की आग पूरी तरह बुझी नहीं थी. राख के नीचे आग अभी भी सुलग रही थी जो रह रह कर धधक उठती थी. गाहे-बजाहे छात्रों का हुजूम अपनी मांगें मनवाने के लिए सड़कों पर उतर आता था. सड़कों पर टायर, गाड़ियाँ या लकड़ियों के ढेर जलते रहते थे. फिर पुलिस की गाड़ियाँ दनदनाती मौके पर पहुंचती और देखते-देखते सड़क पूरी तरह छावनी में बदल जाती. बीडी इवनिंग कॉलेज के छात्र निर्भीकता से पुलिस के सामने डटे रहते और अपनी मांगों के समर्थन में नारेबाजी करते रहते. एकदम से माहौल गरमा जाता, फिर माइक पर पुलिस वालों की आवाज़ गूंजती "हम आखिरी बार चेतावनी देते हैं, कक्षाओं में लौट जाइये. नहीं तो हमें बल प्रयोग करना पड़ेगा." इसके बाद अबतक जो छात्र पुलिस के सामने सीना ताने खड़े थे ..अब उनकी पीठ पुलिसिया लट्ठ को अपने ऊपर बरसने का आमंत्रण दे रही थी.लड़के भाग रहे हैं और पुलिस खदेड़-खदेड़ कर उन्हें पीट रही है...कुछ घंटे बाद फिर लड़कों का हुजूम दुगने जोश से सड़कों पर आ जाता ...जैसे कुछ देर पहले कुछ हुआ ही नहीं हो.पुलिस की जीप में रेडियो लगा हुआ है, लेकिन उसपर विविध भारती या कोई दूसरा स्टेशन नहीं पकड़ता....खरखराती हुई सी आवाज आती है बस. यह वायरलेस था जिसपर लगातार सन्देश प्रेषित हो रहे हैं.<br />
रानू की उम्र तब 7-8 की रही होगी. पटना के यारपुर मोहल्ले में घर के पीछे एक कॉलेज था भुवनेश्वरी दयाल (बीडी इवनिंग) कॉलेज.अभी भी है, लेकिन अब इसकी पुरानी इमारत के अलावा दो और इमारतें भी बन गयीं हैं. अब यहाँ शाम की कक्षाएं नहीं लगतीं.पठन-पाठन का काम दिन में ही होता है.<br />
वायरलेस पर एक पुलिस अफसर कुछ बोल रहा है और दूसरी ओर से भी कुछ आवाजें आ रही हैं. शायद दूसरी ओर से कोई इजाज़त मिल गयी है लगता है. पुलिस कप्तान कुछ पुलिसवालों को हिदायत देकर जीप मोड़ लेता है और पीछे जाकर रेलवे फाटक पर खड़ा हो जाता है...शायद अपने अधिकारियों से अकेले में बात करने के लिए वह पीछे गया है. पाच मिनट के बाद लौटता है और फिर उन अफसरों को बुलाता है.कुछ पुलिसवालों के पास जो रायफल है वह अभी के जैसा नहीं है.उसकी नली का छेद थोड़ा बड़ा है.अफसर जोर से चिल्लाते हैं ..."सभी अपनी-अपनी पोजीशन ले लो." आदेश का तुंरत पालन होता है. सभी पुलिसवाले घुटनों के बल बैठकर सामने प्रदर्शनकारी क्षात्रों पर निशाना साधने लगते हैं. माइक पर फिर वही चिर-परिचित आवाज़ गूंजती है "हम आखिरी बार चेतावनी देते हैं, कक्षाओं में लौट जाइये. नहीं तो हमें बल प्रयोग करना पड़ेगा."...लेकिन प्रदर्शनकारियों पर कोई फ़र्क नहीं पडा. वे आगे बढ़ने लगते हैं...आखिरी चेतावनी गूंजती है और ...रायफल से दनादन गोलियाँ बरसने लगती हैं कहर बनकर. भगदड़ मची है...जिसे जहां जगह मिल रही है...घुसता जा रहा है. पुलिसिया दमनचक्र चरम पर है. सड़कों पर कहीं कापियां बिखरी हैं तो कहीं जूते-चप्पल. जलती टायर के पास एक लड़का लहू-लुहान तड़प रहा है. टांगों से खून की धारा बह रही है...रानू ये सब अपने घर के बरामदे से देख रहा है. मुट्ठियाँ भींच गयीं हैं ...सांस तेज़ चल रही है. मन में पुलिस वालों के खिलाफ आक्रोश है...नफ़रत है. मारे गुस्से के वह फुंफकार रहा है...किसी किसी कोबरे की मानिंद. जिसे गोली लगी है वह उसे पहचानता है. क्या समझाने से वे नहीं मानते जो गोली मार दी...देखो तो ज़रा! वह हिल भी नहीं रहा है...शायद पीठ में भी गोली लगी है. शायद वह मर चुका था. कुछ लड़कों को जीप में डालकर पुलिस घुमा रही है...गर्दनीबाग कि ओर ले जाते हुए कोई उन्हें रायफल के बट से मार रहा है तो कोई बूट से...अरे कोई है!..इन जालिमों को रोको...<br />
अचानक माँ देखती है कि दरवाजा खुला हुआ. रानू बाहर बरामदे में खड़ा वीभत्स नज़ारा देख रहा है. माँ डांटते हुए उसे अन्दर ले जाती है...फिर प्यार से कहती है...कहीं गोली लग गयी तो! देखता नहीं कैसे आँखें बंद करके कहर बरपा रहे हैं...सड़क से काफी दूर सेंट्रल बैंक के पास एक आदमी अपने बरामदे में खड़ा था... उसे भी गोली मार दी जालिमों ने. जिन घरों में ये लड़के पनाह लेते हैं, पुलिस उन्हें भी पीटती है.जल्लाद कहीं के....बाहर मत जाना. रानू के मन में कई सवाल कौंध रहे थे...आखिर पुलिस ने गोलियाँ क्यों चलाई ? क्या बिना इसके काम नहीं चलता ? जान लेना ज़रूरी था ? उनका क्या कसूर था? उनकी बात कोई सुनता क्यों नहीं ? पता नहीं सुबह-सुबह घर से खाकर भी आये थे कि नहीं ? ...लेकिन इन सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं था.</div>
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